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श्रीमद्विजयानंदसूरि कृत,
करता भुगता वाहिज दृष्टे । एकांते नहीं थावे । निश्चय शुद्ध नयात्म रूपे । कुण करता जुगतावे ॥ सु० ॥ ४ ॥ रूप विना यो रूप सरूपी । एक नयात्मसंगी । तन व्यापी वितु एक अनेका । श्रानंदधन दुख गी ॥ सु०॥ ५ ॥ शुद्ध अशुरू नास विनासी । निरंजन निराकारो । स्यादवाद मत सगरो नीको डुरनय पंथ निवारो ॥ सु० ॥ ६ ॥ सप्तभंगी मत दायक जिनजी । एक अनुग्रह कीजो | श्रात्मरूप जिसो तुम लाधो । सो सेवक को दीजो || सु० ॥ ७ ॥
इति श्री मुनिसुव्रत जिनस्तवनम् ॥ २०
श्री नमिनाथ जिनस्तवन ।
श्र मिलवे बंसी वाला कान्हा ए देशी ।
तारोजी मेरे जिनवर सांइ बांह पकड
कर मोरी । कुगुरु कुपंथ फंदथी निकसी
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