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५६ श्रीमद्विजयानंदसूरि कृत, होवे रंक राज विसरामी।जगनाटकमे नटवत नाच्यो कर नाना विधतानी ॥ उरण ॥॥ कोन गति में जीव न जावे बोडे नहीं कुण थानी । संसारी कर्म संगथी पूयो कचवर कुंटी जगनामी ॥उरण॥३॥ एक प्रदेश नहीं जग खाली जनम मरण नहीं गनी।पवन ऊकोरे पत्र गगन ज्यु उडत फिरे जड कामी॥जरासत चिद
आनंद रूप संजारो बारो कुमत कुरानी । जिनवर नाषित मग चल . चेतन तो तुम श्रातमझानी ॥ उरण॥ ५॥
... इति तृतीय संसार भावना ॥ : अथ चतुर्थ एकत्वनावना
॥राग वढंस ॥ तूम क्यों नूलपरे ममता में या जगमें कहो कोन हे तेरा ॥तुमा आंचली।
आयो एकही एकही जावे साथी नहीं जग सुपन वसेरो । एक ही सुख दुःख जोगवे