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५६ श्रीमद्विजयानंदसूरि कृत, धि घन तनु वात वनिकलशे । चार उररही श्रीररे ॥ नवी ॥२॥ वेत्रासन सम लोक अधो है । जबरी निज मध्यव ररे । मुरजाकार ही नललोक हैं । नाषे जग जिनवर रे ॥ जवी० ॥३॥ रचना इसकी किन ही न कीनी। नहीं धास्यो किन कर रे॥स्वयं सिक निराधार लोकये। गगन रह्यो ही अचर रे ॥ नवी ॥४॥ ईश्वर कृत्यही लोक जोमाने । सो आग्या नहीं बर रे। श्रात्मानंदी जिनवर जप्पो । मान मिथ्या मत हर रे॥ नवी० ॥५॥
॥ इति लोकस्वरूप लावना । अथ घादशमी बोधिलन नावना ।
॥ राग तुमरी ॥ अनंते काल से बोधि मुर्लन पानारी । सखी बोधि ॥ आंचती ॥ अकाम निरजरा पुन्य से प्रानी । थावर से त्रस