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________________ ३१ श्रीमद्विजयानंदसूरि कृत, करता भुगता वाहिज दृष्टे । एकांते नहीं थावे । निश्चय शुद्ध नयात्म रूपे । कुण करता जुगतावे ॥ सु० ॥ ४ ॥ रूप विना यो रूप सरूपी । एक नयात्मसंगी । तन व्यापी वितु एक अनेका । श्रानंदधन दुख गी ॥ सु०॥ ५ ॥ शुद्ध अशुरू नास विनासी । निरंजन निराकारो । स्यादवाद मत सगरो नीको डुरनय पंथ निवारो ॥ सु० ॥ ६ ॥ सप्तभंगी मत दायक जिनजी । एक अनुग्रह कीजो | श्रात्मरूप जिसो तुम लाधो । सो सेवक को दीजो || सु० ॥ ७ ॥ इति श्री मुनिसुव्रत जिनस्तवनम् ॥ २० श्री नमिनाथ जिनस्तवन । श्र मिलवे बंसी वाला कान्हा ए देशी । तारोजी मेरे जिनवर सांइ बांह पकड कर मोरी । कुगुरु कुपंथ फंदथी निकसी S "
SR No.010857
Book TitleChaturvinshati Jinstavan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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