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चतुर्विशति जिनस्तवन.
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।सरण गही अब तोरी ॥ ता ॥१॥ नित्य अनादि निगोद मे रुलतां । फूलतां नवोदधि मांही। पृथ्वी अप तेज वात खरूपी । हरितकाय उख पार ॥ ताछ ॥ २॥ बितिचउरिंडी जातनयानक संख्या मुखकी न कां। हीन दीन जयो परवस पर के ऐसे जनम गमाश् ॥ ताण ॥३॥ मनुज अनारज कुलमें उपनो तोरी खबर न का। ज्यूं त्यूं कर प्रक्षु मग अब परख्यो । अब क्यों वेर लगाश् ॥ता ॥४॥ तुम गुण कमल ब्रमर मन मेरो। उडत नहीं है उडा। तृषत मनुज अमृत रस चाखी । रुच से तप्त बुझाई ॥ ताण ॥ ५ ॥ नवसागर की पीर हरो सब । मेहर करो जिनराश । हग करुणा की मोह पर कीजो। लीजो चरण बुहाश् । ॥ ताम् ॥६॥ विप्रानंदन जग उख कंदन । जगत वबल सुखदा । श्रात