SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्विशति जिनस्तवन. ३३ ।सरण गही अब तोरी ॥ ता ॥१॥ नित्य अनादि निगोद मे रुलतां । फूलतां नवोदधि मांही। पृथ्वी अप तेज वात खरूपी । हरितकाय उख पार ॥ ताछ ॥ २॥ बितिचउरिंडी जातनयानक संख्या मुखकी न कां। हीन दीन जयो परवस पर के ऐसे जनम गमाश् ॥ ताण ॥३॥ मनुज अनारज कुलमें उपनो तोरी खबर न का। ज्यूं त्यूं कर प्रक्षु मग अब परख्यो । अब क्यों वेर लगाश् ॥ता ॥४॥ तुम गुण कमल ब्रमर मन मेरो। उडत नहीं है उडा। तृषत मनुज अमृत रस चाखी । रुच से तप्त बुझाई ॥ ताण ॥ ५ ॥ नवसागर की पीर हरो सब । मेहर करो जिनराश । हग करुणा की मोह पर कीजो। लीजो चरण बुहाश् । ॥ ताम् ॥६॥ विप्रानंदन जग उख कंदन । जगत वबल सुखदा । श्रात
SR No.010857
Book TitleChaturvinshati Jinstavan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy