Book Title: Bhikshu Mahakavyam Part 02
Author(s): Nathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 5
________________ प्रस्तुति 'श्रीभिक्षु महाकाव्यम्' का प्रथम खंड ( १ से १० सर्ग) गंगाशहर चातुर्मास से पूर्व प्रकाशित होकर सामने आ गया। गुरुदेव श्री तुलसी को वह भेंट कर दिया गया । इस काव्य को प्रकाशित देख, वे प्रसन्न हुए और इसे सहर्ष स्वीकार किया । कुछ ही दिनों बाद वे दिवंगत हो गए । प्रस्तुत है द्वितीय खंड, जिसमें ११ से १८ सर्ग निबद्ध हैं । यह खंड कुछ विलंब से सामने आया। इसमें अनेक कारणों में एक कारण था — गुरुदेव का महाप्रयाण कर जाना । इस असामयिक मृत्यु से सारा संघ हतप्रभ हो गया । काश ! आज गुरुदेव विद्यमान होते । वे दूसरे खंड को देखकर अत्यधिक प्रसन्न होते । आज काव्यकर्ता भी नहीं हैं। उनका श्रम प्रस्तुत काव्य की प्रत्येक पंक्ति में मुखर है । उनके अनेक सहयोगी मुनि भी दिवंगत हो गए । यह चक्र निरंतर गतिमान् है । जो हैं, उन्होंने इस ग्रन्थ को सराहा है और वे इस काव्य की अनूठी रचना के प्रति नत प्रणत हुए हैं । काव्य का अनुवाद करने में पूर्ण सतर्कता बरती गई है और उसे मूलस्पर्शी रखने का प्रयत्न किया गया है । पहले यह विचार था कि परिशिष्ट में श्लोकानुक्रम और सुभाषित दिए जाएं । परंतु अति व्यस्तता, रुग्णता आदि कारणों से वैसा हो नहीं सका । आज मुझे अतिरिक्त प्रसन्नता हो रही है कि मैंने यह भगीरथ कार्य गुरुदेव की प्रबल प्रेरणा से हाथ में लिया और आज दो वर्षों के सतत श्रम से कार्य परिसंपन्न हुआ । मेरे सहयोगी मुनिश्री चंपालालजी तथा मुनिश्री नगराजजी इसकी संपन्नता में पूरे जागरूक रहे और समय-समय पर सुझाव देते रहे । मैं उनके प्रति अपनी कृतज्ञता निवेदित करता हूं । आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के उत्साहवर्धक वचन भी इस कार्य की संपूर्ति में सहयोगी बने हैं । वे आगमज्ञ, बहुश्रुत, सरस्वती के वरदपुत्र तथा संस्कृत और प्राकृत के प्रकांड विद्वान् हैं । वे चलते-फिरते विश्वकोष हैं । उनकी प्रेरणा से तेरापंथ धर्मसंघ सतत विकासशील बन रहा है । विद्या के क्षेत्र में इस धर्मसंघ ने अनेक ऊंचाइयों को छुआ है और आज भी उसी के अभिमुख है । मैं उनके प्रति कृतज्ञ हूं । मैं मुनि राजेन्द्रकुमारजी को विस्मृत नहीं कर सकता । वे मेरे प्रत्येक कार्य में सहयोगी रहे हैं। आज भी वे संस्कृत व्याकरण के संपादन में अति

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