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दष्टांत : ५८-६०
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५८. लड़ना हो तो मुझसे लड़ो पुर के बाहर स्वामीजी शौच-निवृत्ति के लिए गए । एक वेषधारी साधु उनके सामने आ रास्ता रोक कर खड़ा हो गया । और उनके चारों तरफ गोलाकार लकीर खींची और बकझक करने लगा। तब एक चरवाहे ने आकर उसे कहा-"इन गुरुजी से झगड़ा मत कर।"
भारीमालजी स्वामी की ओर इंगित करते हुए बोला 'विवाद करना हो तो इन से कर लड़ना हो तो मुझ से लड़।"
५९. निमंत्रण सबको, भोजन एक को साधुपन स्वीकार कर उसे भली-भांति पालता है, वह महान् पुरुष होता है । कुछ कहते हैं -"पांचमें आरे में पूरा साधुपन नहीं पाला जा सकता है । इस समय ऐसा ही साधुपन पाला जा सकता है।" इस पर स्वामीजी ने दृष्टांत दिया।
किसी ने भोज के लिए पूरे परिवारों को निमंत्रण दिया। भोजन के समय वह प्रत्येक परिवार में से एक-एक व्यक्ति को भीतर ले जाता है, शेष सबको बाहर ही रोक देता है।
लोगों ने कहा ---- "तुमने पूरे परिवार को सामूहिक निमंत्रण दिया और उनमें से एक-एक को भोजन करने भीतर ले जाता है, यह क्यों ?
तब वह बोला ... "मेरी सामर्थ्य इतनी ही है।" उसने आगे कहा-"अमुक ने अपने पिता के पीछे धूल उड़ा दी, मृत्यु-भोज किया ही नहीं । मैं एक-एक को तो भोज कराता हूं।"
तब लोगों ने कहा- "तुम भी मृत्यु-भोज नहीं करते तो कौन तुम्हारे द्वार पर आकर धरना देता ? पूरे परिवारों को सामूहिक निमंत्रण देकर एक-एक को भोजन कराते हो, इससे तुम्हारा जन्म बिगड़ता है।''
इसी प्रकार दीक्षा लेते समय पांच महाव्रत स्वीकार करता है और आचरण के समय उनका पूरा पालन नहीं करता, उसके इहलोक और परलोक-दोनों बिगड़ जाते
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६०. दिवालिया कौन? साधु का आचार बताया जाता है, उसे कुछ शिथिल आचार वाले निंदा मानते हैं । इस पर स्वामीजी ने दृष्टांत दिया -
एक साहूकार अपने बेटे को शिक्षा देता है-"जिससे उधार ले, उसकी राशि लोटा देनी चाहिए । न लौटाने वाले को लोग दिवालिया कहते हैं।" उसका पड़ोसी दिवालिया था, वह यह सुन कर जल-भुन जाता है। वह कहता है-"यह बेटे को शिक्षा नहीं दे रहा है, मेरी छाती को जला रहा है हृदय पर आघात लगा रहा है।"
इसी प्रकार कोई साधु-साधु का आचार बतलाता है, उसे सुन कर वेषधारी साधु जल-भुन जाता है और कहता है-"यह मेरी निंदा कर रहा है।"