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दृष्टांत : ७०-७२
फूलझड़ी से दाग दो ।" पर फूलझड़ी से मिटेगा आग में तपे हुए लोहे के कुश' के दागने से ।
ऐसे ही मिथ्यात्व का रोग बड़ा जटिल है, वह कड़े दृष्टांत के बिना कैसे मिट सकता है ?
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दागने पर बह रोग कैसे मिलेगा ? वह
७०. आचार्य पद तो मिलना कठिन है।
चन्द्रभाणजी ने तिलोकचंदजी को आचार्य पद का प्रलोभन देकर स्वामीजी से विमुख कर दिया। तब स्वामीजी ने कहा - " तुम्हें आचार्य पद तो मिलना कठिन है । लगता है, सूरदास - पद मिल जाए। यह भी लगता है, तुम्हें चन्द्रभाणजी जंगल में छोड़ेगा ।"
कुछ वर्षों बाद चन्द्रभाणजी ने तिलोकचंदजी को दृष्टि की दुर्बलता के कारण जंगल में छोड़ दिया । स्वामीजी का वचन सत्य हो गया ।
७१. विवेक
एक लड्डू में जहर मिला हुआ है और दूसरे में नहीं है । किन्तु समझदार आदमी निर्णय किए बिना दोनों में से किसी को भी नहीं खाता। इसी प्रकार साधु और असाधु का निर्णय किए बिना किसी को भी वंदना नहीं करता ।
७२. हमें पुण्य कैसे होगा ?
वेषधारी साधु सावद्य दान में पुण्य कहते हैं । समझदार आदमी उसका सही मूल्यांकन करता है । "तुम असंयती को देने में पुण्य बतलाते हो, सो उसे देते हो या नहीं ?"
तब वे कहते हैं- "हम साधु हैं। इसलिए असंयती को देने से हमें दोष लगता है, उसे हम नहीं दे सकते । "
इस विषय में स्वामीजी ने एक दृष्टांत दिया - एक पुरुष से किसी ने कहा" तुम्हारे शरीर में वायु का रोग है, सो सात मंजिले मकान से छलांग भरो, तुम्हारा वायु का रोग मिट जाएगा ।"
तब वह बोला -- "यह वायु का रोग तो तुम्हारे शरीर में भी है, पहले तुम छलांग भरो। "
१. राजस्थानी कोष खण्ड ४ पृष्ठ में 'हलवानी' के अन्तर्गत उद्धृत ।
२. चूरू से विहार कर चन्द्रभाणजी और तिलोकचंदजी जुहारिया जा रहे थे। रास्ते में चन्द्रभाणजी ने एक गोलाकार कुंडल बनाया । उसमें चीटियां चल रही थीं । तिलोकचंदजी से पूछा - "बताओ, यहां क्या है ?" वे बोले "मुझे कुछ भी दिखाई नहीं देता । तब चंद्रभाणजी ने कहा- तुम्हें खड़े-खड़े चींटिया दिखाई नहीं देतीं, इसलिए तुम अब अकेले चल नहीं सकते। अब तुम मारणान्तिक संलेखना शुरू कर दो। उन्होंने कहा - "अभी शरीर दुर्बल नहीं है । मैं संलेखना प्रारंभ कैसे कर सकता हूं ? आप मेरे आगे-आगे चलें, मैं आपके पीछे-पीछे चलूंगा । उन्होंने कहा - "यह संभव नहीं है ।" उस समय चन्द्रभाणजी जंगल में ही उनका संबंध विच्छेद कर आगे चले गये । स्वामीजी ने जो कहा, वे दोनों बातें एक साथ सत्य हो गई ।