Book Title: Bhikkhu Drushtant
Author(s): Jayacharya, Madhukarmuni
Publisher: Jain Vishva harati

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Page 312
________________ दृष्टांत : ५-६ २८३ टीकमजी बहुत से लोगों के साथ वास के आगे खड़े थे । वहां गोचरी करके मुनि हेमराजजी आये, तब टीकमजी ने पूछा-हेमजी ! चर्चा करोगे ? तब हेम मुनि ने कहा- तुम्हारा मन हो तो करने का विचार है, यह कहकर चर्चा छेड़ते हुए कहा--नव पदार्थ में सावध कितने ? निरवद्य कितने ? न सावद्य, न निरवद्य ऐसे कितने ? तब टीकमजी बोले-जीव और आश्रव सावध निरवद्य दोनों, अजीव पुण्य, पाप, बंध, सावद्य निरवद्य दोनों नहीं, संवर, निर्जरा, मोक्ष निरवद्य । यह टीकमजी की मान्यता नहीं पर उनको तेरह द्वार का थोकड़ा कंठस्थ था इस कारण अपना पल्ला छुड़ाने के लिए यह उत्तर दिया। तब हेमजी स्वामी ने पूछा-आश्रव जीव या अजीव ? टीकमजी-आश्रव अजीव । तब हेमजी स्वामी ने कहा- तुम आश्रव को अजीव कहते हो तो पहले आश्रव को सावध निरवद्य दोनों कहा और अजीव को सावध निरवद्य एक ही नहीं कहा, उस हिसाब से तो आश्रव अजीव नहीं ठहरा। ऐसा कहने पर निरुत्तर हो गए। सही उत्तर देने में असमर्थ होते हुए भी बोले- मैं कहता हूं वैसे ही सूत्र भगवती में है। तब जती नायकविजयजी ने उपाश्रय में से भगवती लाकर सौंपी। तब टीकमजी ने भगवती के बारहवें शतक के पांचवें उद्देशक के उन पाठों को निकाला- जिनमें क्रोध, आशा, तृष्णा, रूद्र और चंड में वर्णादिक १६ बोल बतलाए हैं। तब हेमजी स्वामी बोलेतुमने पहले कहा 'आश्रव सावद्य निरवद्य दोनों हैं और अजीव' वैसे बताओ । पर वैसा पाठ निकला नहीं। ६. दूसरी चर्चा करो उसके बाद जती नायकविजय उनको उपाश्रय में ले गया। हेमजी स्वामी पूर्व दिशाभिमुख तथा टीकमजी पश्चिम दिशाभिमुख बैठे। लोग बोले-- इस चर्चा में तो हमें कुछ समझ में नहीं आता । दूसरी चर्चा करो। टीकमजी ने भी कहा-दूसरी चर्चा करो। ___ तब हेमजी स्वामी ने कहा-पहली चर्चा का ही उत्तर दो। इस प्रकार अनेक बार आमने-सामने कहना पड़ा। उसके बाद टीकमजी बोले-भगवान् ने गोशालक को बचाया उसमें क्या हुआ ? हेमजी स्वामी बोले- आगम में कहा है, वही सही है । तब टीकमजी ने भगवती का पाठ निकाला पर अनुकंपा के लिए गोशालक को बचाया। इस पाठ का अर्थ पढ़कर नहीं सुनाया। हेमजी स्वामी बोले-इस पाठ के अर्थ को क्यों नहीं पढ़ रहे हैं ? फिर भी टीकमजी ने अर्थ नहीं पढ़ा। तब जती नायकविजयजी बोले-इधर लाओ, मैं पढ़ता हूं, यह कहकर पत्र हाथ में लेकर पढ़ने लगे-गोशालक का संरक्षण भगवान् ने सरागपन के कारण--"- दया १. भगवती शतक १२ सू० १०३-१०७ ।

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