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दुष्टांत
फिर उनसे कहा - प्रतिमा बन गई, पर उसकी प्रतिष्ठा नहीं हुई तो उसको वंदना नहीं करते हो, प्रतिष्ठा होने के बाद कौन सा गुण बढ़ा ? (भावी) तीर्थंकर का जीव नरकादिक में या गर्भ में है, तो भी उनको वंदना करते हो और पाषाण लाए उसकी प्रतिमा बना ली पर प्रतिष्ठा नहीं हुई, तो भी वंदना नहीं करते । 'जिन प्रतिमा जिन सारखी', अर्थात् जिन प्रतिमा को जिन जैसी मानते हो तो फिर इतना अन्तर क्यों ?
१४. हमें अकल्पनीय नहीं लेना है
मी स्वामी एक घर में गोचरी गए । तब दूसरी घरवाली ने किवाड़ खोल दिया । उससे पूछा तो बोली- मैंने नहीं खोला । किवाड़ की सांकल को हिलती देखकर बोले - सांकल हिल रही है इससे तो ऐसा लगता है कि तुमने अभी किवाड़ खोला है । तब वह बोली- आप तो पूछताछ बहुत करते हैं, दूसरे ऐसे नहीं करते । तब हेमजी स्वामी बोले- बहन ! हमें अकल्पनीय नहीं लेना है न ?
१५. पुनियां तो बर्तन में काफी है
हेमजी स्वामी गोचरी गए। एक बहन ने खोला ?
किंवाड़ खोल दिया । उससे किंवाड़
तब वह बोली- मैं तो सूत कात रही थी अतः पुनी के लिए खोला है, आपके लिए नहीं ।
तब हेमजी स्वामी ने उसके पुनी रखने वाले बर्तन को देखा। उसमें काफी पुनियां देखकर कहने लगे -बहन ! तूने कहा -पुनी लाने के लिए खोला, पर लगता है, इस बर्तन में काफी पुनियां हैं। ऐसा कहने पर वह सहम गई ।
१६. क्या त्याग करू ?
सीहवा गांव में मानजी खेतावत को कहा - रात में खाने का त्याग करो । तब मानजी बोले – रात्रि भोज का त्याग करूं तो चन्द्रमा नाराज हो जाए। दिन में खाने का त्याग करूं तो सूर्य अप्रसन्न हो जाए । अब क्या त्याग करूं ?
तब हेमजी स्वामी बोले – अमावस की रात में चांद-सूरज दोनों ही नहीं रहते । उसमें खाने के त्याग करो। तब वह बोला- ठीक है, त्याग करवा दो ।
१७. यह मनोरथ तो फलित होता नहीं लगता
चेलावास में हीरजी नामक जती को उलटी-सीधी चर्चा करते देखकर हेमजी स्वामी ने कहा - हीरजी ! अगर तुम्हें राजाजी आज्ञा दे दे –'तुम्हारा मन हो वैसे करो' तो तुम क्या करो ? तब हीरजी बोले – ढूंढियों को तो एक ही न रखूंगा, सबको अपने हाथ से मारूंगा । हेमजी स्वामी बोले- मुझे तो छोड़ देना । अपने तो आपस में प्रेम है ।
हीरजी बोले - सबसे पहले तो तुम्हें ही मारूंगा ।
तब हेमजी स्वामी बोले- यह तो तुम्हारे मन का मनोरथ फलित होता नहीं फिर यह ख़राब भावना क्यों रखते हो ?
लगता,