Book Title: Bhikkhu Drushtant
Author(s): Jayacharya, Madhukarmuni
Publisher: Jain Vishva harati

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Page 326
________________ श्रावक संस्मरण (दृष्टांत) १. तुमने हमको खूब लज्जित किया । चंद्रभाणजी पुर के वासी । तिलोकचंदजी चेलावास के वासी । दोनों संघ से अलग होकर पुर गांव में आए। मन में सोचा होगा कि पुर क्षेत्र के लोगों को समझा लेंगे । चन्द्रभाणजी का भाई नैणचन्द आकर बोला - तुमने हमको खूब लज्जित किया । स्वामी भीखणजी को छोड़कर अलग हुए। इस लोक और परलोक दोनों को बिगाड़ लिया । इस प्रकार बहुत भर्त्सना की, तब विहार कर गये दृढ़ थे । । श्रावक भी इतने २. जा रे पंजारा ! आमेट में पेमजी कोठारी की बहिन चंदूबाई से चन्द्रभाणजी ने कहा- तुझे तो भीखणजी कंजूस बतलाते थे । वे कहते थे - धन तो खूब पाया है, पर दान का गुण नहीं है। तब चन्दूबाई अपनी मेवाड़ी भाषा में बोली -जा रे पंजारचा ! तू मेरा गुरु से मन भंग करवाना चाहता है ? मेरे में गुण नहीं देखा होगा तो कहा होगा । वे महापुरुष हैं। ऐसा कहकर उसको डांट दिया । श्राविका भी इतनी दृढ़ । ३. मुझे लंगूरिया कहा आमेट में अमरा डांगी को चन्द्रभाणजी ने कहा - "तेरे लिए भीखणजी कहते थे - यह तो लंगूरिया है, ऐसे ही इधर-उधर घूमता है पर मजा नहीं, यह सुनकर वह अधीर हो गया । मुझे लंगूरिया कहा। उसके बाद अन्त में वह शंकाशील हो गया । तब भारमलजी स्वामी ने उसे छोड़ने का विचार किया। उसके बाद श्रद्धाभ्रष्ट हो गया । यह प्रारम्भ से ही कच्चा था । ४. ऐसे ही चलते थे क्या ? चन्द्रभाणजी, तिलोकचंदजी देवगढ़ से चलते हुए सिरियारी आए। गांव में धीरेधीरे चलते देखकर लखूबाई कलूबाई ने पूछा- आज कहां से चलकर आये हो ? तब वे बोले - देवगढ़ से चलकर आए हैं । तब दोनों बहनें बोली- ऐसे ही चलते थे क्या ? इस गति से चलने से तो दो तीन दिन लगते। ऐसा कहकर टोक दिया । १. " मेवाड़ में पेजार जूते को कहते हैं ।

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