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दृष्टांत : २३-२५
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तब वेषधारी बोले - रात्रि में परस्पर झगड़ा होने पर क्रोध के बस छुरी से मर जाए या मार दे, यह दोष है ।
तब जीवोजी बोला -- तब तो नांगला, पुस्तक बांधने की डोरियां भी नहीं रखनी चाहिए क्योंकि डोरी से भी फांसी खा ले तो तुम्हारे हिसाब से डोरी रखने में भी दोष है ।
२३. दो तो मैंने बताए, आगे आप बताओ ।
स्वामीजी के श्रावक से वेषधारी ने कहा- छह काय के नाम जानते हो ? तब उसने कहा- जानता हूं । पृथ्वीकाय, अपकाय, इत्यादि नाम बताए। तब वेषधारी बोला- ये तो गोत्र हैं, नाम कहां है ?
तब उस श्रावक को दो ही नाम आते थे, इंदीथावर काय, बंभीथावर काय, ये दो नाम बता दिये । तब वेषधारी बोला
आगे बताओ ?
तब वह श्रावक बोला -- मैं तो अभी सीख रहा हूं। दो तो मैंने बता दिए, तुम जानते हो तो आगे के बतलाओ ?
२४. सब पूरीया ही पूरीया है ।
सं० १८५६ के वर्ष भीखणजी स्वामी वायु के कारण से १३ महिना करीब नाथद्वारा में रहे । भीलवाड़ा के चार भाई आए ।
१. पूरो नांवे का, २. रतनजी छाजेड़, ३. भैरूंदास चंडाल्या, एक व्यक्ति और इन चारों ने स्वामीजी से बहुत दिनों तक चर्चा कर अच्छी तरह से समझकर गुरु
बनाया ।
हेमजी स्वामी ने भैरूंदास से पूछा तुमने स्थानक बनाया । उसमें रहते हैं वे साधु आचार में कैसे हैं ?
भैरूंदास बोला यह श्रद्धा और यह आचार देखते तो सब पूरीया ही पूरीया है । हेमजी स्वामी ने पूछा -पूरीया क्या है ?.
भैरूंदास बोला - एक गाम का ठाकर भक्तों को इष्ट की तरह पूजता था । वह भक्तों को भोजन करवाकर चरणामृत लेकर पैर धोकर पीता था। एक बार बहुत से भक्तों को भोजन करवाकर वह चरणामृत ले रहा था । उसके गांव का भक्त बना- पूरीयो नामक मेघवाल भी उनमें था । उसका चरणामृत लेते समय ठाकर ने उसके मुंह की तरफ देखा । उसे पहचान लिया ।
तब बोला-पूरीया तूं रे !
तब वह बोला- मुझे क्या कहते हो, ठाकर साहब ? सब पूरीया ही पूरीया है । कोई सरगड़ा है, कोई थोरी है, कोई बावरी है, क्या परिचित को ही पूरीया कह रहे हो ?
भैरूंदास बोला - वैसे ही यह श्रद्धा और आचार देखते और सब पूरीया जैसे हैं । २५. थुक्क थुक्का, धक्कमधक्का बाद में छक्कमछक्का स्वामी भीखणजी १८५७ के वर्ष भीलवाड़े पधारे। आचार श्रद्धा की ढालें