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दष्टांत : २०-२१
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तब हेमजी स्वामी बोले- पहले वाले 'मिच्छामि दुक्कडं' लो, उसके बाद फिर चर्चा करें |
तब रूपविजय बोले- बाद में लूंगा ।
तब हेमजी स्वामी बोले- तुम समझते हो मैं पण्डित हूं पर चौदह पूर्वधारी भी वचन में स्खलित हो जाते हैं । यह कोई ऐसी बात नहीं इसलिए मिच्छामि दुक्कडं स्वीकार कर लो । तब बोला --- अपन साथ में स्वीकार करेंगे। तब हेमजी स्वामी बोले – जो वचन में स्खलित हो उसको मिच्छामि दुक्कडं आता है नहीं चुके उसको नहीं आता । तुम स्खलित हुए इसलिए तुम्हें तो 'मिच्छामि दुक्कडं' आएगा पर मैं त्रुटि नहीं करूंगा तो मुझे किस कारण से आएगा ?
इसलिए मिच्छामि दुक्कडं ले लो। फिर भी 'मिच्छामि दुक्कडं' नहीं लेता है । फिर बोले- अब उठो ।
फिर उठने लगे तब रूपविजय ने रजोहरण पकड़ लिया । तब हेमजी स्वामी बोले- तुम्हें तो क्षमावान सुना है, तुम ऐसे क्या करते हो ?
रूपविजय बोले तुम जाओ मत, चर्चा करो ।
तब हेमजी स्वामी बोले- पहले वाले 'मिच्छामि दुक्कडं लो, फिर चर्चा हो ।
तब बहुत लज्जित और हैरान हो गया ।
लोगों ने कहा- अब उठो ।
तब हेमजी स्वामी बोले- तुम कहो तो अब हम जाएं ।
तब रूपविजय बोले- तुम्हें असंयति को हम जाने का कैसे कहेंगे ?
तब हेमजी स्वामी बोले- हमको असंयति समझते हो तो, जाने का नहीं कहना तो आओ हेम ऋषि ! आओ हेम ऋषि ! ऐसे आने का कहकर कैसे बुलाया ?
इस हिसाब से तीसरा 'मिच्छामि दुक्कडं' तुम्हारे कथन के अनुसार फिर आएगा । इस प्रकार रूपविजय को निरुत्तर कर वापस स्थान पर आए । जिन मार्ग का बहुत उद्यत हुआ ।
क्या चर्चा करने का मन है ?
मुनि हेमजी स्वामी ( गृहस्थावास में ) और भीमजी शीतलदास की सम्प्रदाय के हीरजी के पास जा खड़े हुए। तब हीरजी ने पूछा- तुम किस गांव के हो ? तब भीमजी बोले- हम सिरियारी के । उन्होंने पूछा- तुम्हारे गुरु कौन हैं ?
तब भीमजी बोले- भीखणजी के साधु वहां है, उनके पास भी जाते हैं और वहां जयमलजी की साध्वियां हैं उनके पास भी जाते हैं ।
उसके बाद हेमजी स्वामी से पूछा- तुम्हारे गुरु कौन ?
तब हेमजी स्वामी ने अपने लहजे में ऊंचे स्वर में कहा मेरे गुरु हैं पूज्य श्री
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सं० १८४९ के वर्ष कांठेड़ दोनों भीलवाड़ा में