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दृष्टांत : २७६-२७७
बहती थी । स्वामीजी द्वारा पहले ही कहा हुआ था, पधार जाते और उस तट पर भारमलजी स्वामी जाते । सीख और सुमति का शिक्षण और भली भांति दर्शन दे कर पधार जाते तथा भारीमालजी स्वामी बगड़ी पधार जाते।
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नदी के इस तट पर स्वामीजी परस्पर बातें कर, हेतु, युक्ति, स्वामीजी वापस कंटालिया यह बात भारमलजी स्वामी
२७६. हम ऐसा नहीं जानते भीखणी स्वामी ने हेमजी स्वामी से कहा - "हमने छोड़ा, तब पांच वर्ष तक हमें पूरा आहार भी नहीं मिला। तो बात ही कहां ? वस्त्र के रूप में कभी-कभी "वासती" की कीमत सवा रुपया थी । भारमल कहता - 'आप इसका उत्तरीय ( पछेवड़ी या चादर ) करें ।' तब मैं कहता - 'एक चोलपट्टा (अधोवस्त्र ) तुम करो और एक मेरे लिए करो ।'
उन्हें (अपने पूर्व गुरु को )
घी और चिकनाई की मिलता; उसके थान
"हम सब साधु गोचरी में आहार पानी लाकर जंगल में चले जाते । आहारपानी को वृक्षों की छांह में रख कर हम सूर्य का आतप लेते । शाम को गांव में लौट आते ।"
इस प्रकार हम कष्ट सहते थे । कर्म-बन्धन को तोड़ते थे ।
हम ऐसा नहीं जानते थे कि हमारा मार्ग जमेगा और हमारे संघ में इस प्रकार स्त्री-पुरुष दीक्षा लेंगे और इस प्रकार श्रावक-श्राविका होंगे ।
हमने सोचा था आत्मा का कार्य सिद्ध करेंगे, अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए प्राण न्योछावर कर देंगे । यह सोचकर हम तपस्या करते थे ।
बाद में कोई-कोई व्यक्ति हमारे सिद्धान्तों में विश्वास करने लगा, तत्त्व को समझने लगा ।
तब थिरपाल, फतैचन्द आदि हमारे साथ वाले साधुओं ने कहा- लगता है लोग तत्त्व को समझेंगे फिर आप इतनी कठोर तपस्या क्यों करते हैं ? तपस्या करने के लिए तो हम हैं ही । आप बुद्धिमान हैं, आप धर्म का उद्योत करें, लोगों को तत्त्व समझायें । उसके बाद हम विशेष पुरुषार्थं करने लगे । हमने आचार और अनुकंपा की चौपइयां रची, व्रत अव्रत की चौपई रची। बहुत लोगों को तत्त्व समझाया फिर व्याख्यानों की रचना की ।
२७७. तुम्हारी लेखनी बनाने का त्याग है।
बचपन की बात है, भारमलजी स्वामी प्रतिलिपि करते थे, तब बार-बार लेखनी बनवाते रहते थे ।
एक दिन भीखणजी स्वामी बोले – “तुम्हारी लेखनी बनाने का त्याग है ।"
तब वे अपने आप बनाने लगे । ऐसा करते-करते वे लेखनी बनाने की कला में प्रवीण हो गए।
१. बरू की लेखनी चाकू से छील कर तैयार की जाती है उसका मुंह घिसता है, तब उसे बार-बार छील कर बनाना होता है ।