________________
मंथन
अपने भ्राता की मृत्यु का कारण अमरसिंह के अन्याय को जान कर भी मामाशाह ने मेवाड़ के सिंहासन के प्रति अपनी भक्ति में न्यूनता नहीं आने दी। वे निर्विकार भाव से जीवन के अन्तिम क्षण तक मेवाड़ के प्रति पूर्ण स्वामीभक्त बने रहे। सं० १६५३ में महाराणा प्रतापसिंह के परलोकवासी हो जाने पर भी भामाशाह अपनी नीति और कुशलता से अमरसिंह के मंत्री के रूप में शासन में 'पूर्ण योग देते रहे। उनकी मृत्यु के विषय में वीर-विनोद पृष्ठ २५१ पर लिखा है:
'भामाशाह बड़ी जुरअत का आदमी था। वह महाराणा प्रतापसिंह के शुरू समय से महाराणो अमरसिंह के राज्य के २॥ तथा ३ वर्ष तक प्रधान रहा । इसने ऊपर लिखी हुई बड़ी बड़ी लड़ाईयों में हजारों आदमियों का खर्चा चलाया। यह नामी प्रधान सं० १६५६ माघ शु० ११ (हि. १००९। सा० ९ रजलाई १६०० ता० १७ जनवरी ) को ५१ वर्ष ७ महीने की उमर में परलोक को 'सिधारा । इसने मरने के पहिले एक दिन अपनी स्त्री को एक बही अपने होथ की लिखी हुई दी और कहा कि इसमें मेवाड़ के खजाने का कुल हाल लिखा हुआ है । जिस वक्त तकलीफ हो यह बही उन राणा की नज्र करना। यह खैरख्वाह इसी बही के लिखे कुल खजाने से महाराणा अमर सिंह का कई वर्षों तक खर्च चलाता रहा । मरने पर इसके बेटे जीवाशाह को महाराणा अमरसिंह ने प्रधान पद दिया था। वह भी खैरख्वाह आदमी था। लेकिन भोमाशाह की सानी का होना कठिन था। * ___ भामाशाह के पीछे महाराणा अमरसिंह ने इसे ( जीवाशाह को) अपना प्रधान बनाया । सुलह होने पर कुँवर कर्ण सिंह जब बादशाह जहाँगीर के पास अजमेर गया, उस समय यह राज्यभक्त प्रधान जीवाशाह उसके साथ था। +
जीवाशाह के स्वर्गासीन हो जाने पर उसका पुत्र अक्षयराज महाराणा कर्ण* राजपूताने के जैन वीर पृष्ठ ९६ । + राजपूताने के जैन वीर पृष्ठ १०० ।
रा० पू० इ० खं० तीन पृ० ७८७