Book Title: Bhamashah
Author(s): Dhanyakumar Jain
Publisher: Jain Pustak Bhavan

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Page 171
________________ भामाशाह प्रतापसिंह - दानवीर ! आप धन्य हैं। जिस धनके लिये कैकेयी ने पुत्रवत् राम को चतुर्दश वर्ष के लिये बनवास दिलाया, जिस धन के लिये स्वार्थी मुआ ने अपने भ्रातृज भोज का बध करने की योजना बनायी; जिस धन के लिये बनवीर ने अबोध राज्याधिकारी उदयसिंह की जीवन लीला समाप्त करने का असफल प्रयास किया - सात पीढ़ियों द्वारा संचित वह धन आप तृणवत् अर्पण कर रहे हैं । आपकी इस देवोपम उदारता के लिये अनायास मेरे हृदय से कोटि-कोटि साधुवाद निकल रहा है । इस अमूल्य और सामयिक सहायता से यदि मेवाड़ - उद्धार हुआ तो उसके सम्पूर्ण यश के भागी आप ही होंगे । भामाशाह - ( नम्र होकर ) गुणाकर । इस साधारण कर्तव्य पालन के लिये इतनी प्रशंसा आवश्यक नहीं । आपकी स्वीकृति ही मेरा महासौभाग्य है, अपने धन के सदुपयोग की कल्पना ही मेरी हार्दिक प्रसन्नता के लिये पर्याप्त है । प्रतापसिंह—भामाशाह ! आपका औदार्य और त्याग मुझे नवीन चेतना दे रहा है । अतः मैं मेवाड़ - उद्धार के लिये दृढ़-प्रतिज्ञ होता हूं । ( सामन्तों से ) मेरे वीर सहचरों ! भामाशाह की इस विपुल सहायता हमारी समस्त कठिनाइयां दूर कर दी हैं, अब हमें अपने कर्तव्यपालन के लिये कटिबद्ध होना है । अत: चलो 'युद्ध के साधन एकत्रित कर विजय यात्रा को तत्पर हों । ( ' महाराणा प्रताप सिंह की जय' 'मेवाड़ - मेदिनी की जय' 'दानवीर भामाशाह की जय' आदि जय ध्वनियाँ करते हुए सबका मेवाड़ की ओर प्रत्यावर्तन ) पटाक्षेप १३५

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