Book Title: Bhamashah
Author(s): Dhanyakumar Jain
Publisher: Jain Pustak Bhavan

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Page 176
________________ भामाशाह खां का खड्ग टूट कर भूमि पर गिर पड़ा। पर धन्य है मन्त्री का न्याय युद्ध ! उन्होंने शत्रु को भी निःशस्त्र देख कर प्रहार नहीं किया। यों देलवाड़ा विजय के उपरान्त कुम्भलमेर दुर्ग के सूबेदार का बध कर उसे भी ले लिया। यों ३२ दुर्गों पर केशरिया ध्वज फहरने लगे हैं। अब चित्तौड़ और माण्डलगढ़ के अतिरिक्त सम्पूर्ण मेवाड़ शत्रुके अधीन हो गया है । मैं कठिनता से प्राण बचाकर श्रीमान् को समाचार देने आ पाया हूँ। __ अकबर-( सक्रोध ) खानखाना ! कई लक्ष रुपये और सहस्रों सैनिकों की आहुति के फलस्वरूप जिस मेवाड़ पर यवन-पताका फहर सकी थी, आज पुनः उसी मेवाड़ पर मेरा अधिकार नहीं रह गया । यह पराजय मुझे शूल-सी चुभ रही है। कहिये, इस सन्ताप का क्या उपचार किया जाये ? खानखाना-यवनेन्द्र ! भामाशाह की सहायता और हर दुर्गों की विजयसे महाराणा शक्तिशाली हो गये हैं। अब उन्हें पराजित करना असम्भव ही है, अतः इस विषय में चिन्ता न करना ही श्रेयस्कर है। अकबर-पर जिससे आजीवन शत्रुता निभायी, उसे ही सानन्द शासन करते देख मेरे हृदय की दशा विचित्र हो रही है । सारा संसार क्या मेरी निन्दा न करेगा ? खानखाना-नहीं, प्रताप के समान साहसी और वीर व्यक्ति से संग्राम करने में निन्दा हो सकती है, संग्राम रोकने में नहीं। अकबर-(नेपथ्य से अजान का शब्द सुन ) अब नमाज का समय हो गया है, अतः अब कल इस विषय पर पुनः विचार होगा।' . पटाक्षेप १४०


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