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भामाशाह
दृश्य २
स्थान-उदयपुर। समय-संध्या । (अपने एक तरुण मित्र के साथ संथ्याटन करते हुए अमरसिंह )
अमरसिंह-मित्रवर ! जाने किस दुर्भाग्य से मैं ने महाराणा को पिता के रूप में पाया है। उन्हें राग-रंग से ही अरूचि है, भोगबिलाससे तो वे दूर भागते हैं । यहाँ तक कि उनके सामने मुझे भी सदा अपनी इच्छाओं पर नियन्त्रण रखना पड़ता है । क्या करूं?
मित्र-कुमार ! इसमें हानि ही क्या है ? आत्म-संयम ही सफलता का स्वर्ण सोपान है। ___ अमरसिंह-मित्र ! आत्म-संयम का भी समय होता है, वनों में रहते समय आत्म-संयम उपयुक्त था। पर अब राजभवनोंके प्राप्त हो जाने पर उसकी आवश्यकता नहीं रह गयी । ____ मित्र-ऐसा मत सोचिये कुमार ! आत्य-संयम सदा आवश्यक है। पर यह तो कहिये कि आज आपको महाराणाकी प्रकृति से इतना असंतोष क्यों हो रहा है ? ___ अमरसिंह-मेरा असंतोष आज का ही नहीं । जबसे मुझमें सोचने
और समझनेकी सामर्थ्य हुई, तभीसे उनकी संयम-वृत्ति मुझे खलती रही है।
मित्र-यह मुझे ज्ञात है । फिर भी आज की किसी घटना ने ही आपको इतना चंचल किया होगा ?