Book Title: Bhamashah
Author(s): Dhanyakumar Jain
Publisher: Jain Pustak Bhavan

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Page 188
________________ भामाशाह भामाशाह-यही मेरी चिन्ता का कारण है, युवराज की उद्धतता और अविवेकता के अनेक उदाहरण मैने देखे हैं । कहीं यह अविवेक भी कुछ प्राणियों के प्राण न ले बैठे ? मनोरमा-नाथ ! मैं एक बात यह जानना चाहती हूं कि कीतू युवराज की प्रेमिका बनना चाहती है या नहीं? भामाशाह-नहीं, कीतू भी ताराचन्द्र पर अनुरक्त है, निश्चय ही वह युवराज का प्रेम-प्रस्ताव ठुकरा देगी। मनोरमा-अब अवश्य युवराज कुछ अनर्थ खड़ा करेंगे। क्या आप महाराणा से कह कर यह अनर्थ नहीं रोक सकते ? भामाशाह-प्रिये ! मैं इस प्रसंग को महाराणा तक नहीं पहुंचाना चाहता। सम्भव है उनका न्याय युवराजके पथ में अहितकर हो और मेवाड़ का भावी उत्तराधिकारी कुछ और ठान बैठे। मनोरमा-यह अनुमान दूरदर्शितापूर्ण है । अब नियतिके ही न्याय को स्वीकार करना होगा। भामाशाह-हस्त के कंगण को देखने के लिये दर्पण की आवश्यकता नहीं, शीघ्र ही परिणाम समक्ष आ जायेगा। अब यह प्रसंग समाप्त किया जाये। मनोरमा--जैसी आपकी आज्ञा । पटाक्षेप

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