Book Title: Bhamashah
Author(s): Dhanyakumar Jain
Publisher: Jain Pustak Bhavan

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Page 169
________________ भामाशाह आप का ही लवण खाकर मेरे शरीर का प्रत्येक परमाणु पुष्ट हुआ है। आप की ही कृपासे मेरे परिवार ने देव-दुर्लभ सुख भोगे हैं और आज आप स्वर्ग सदृश मेवाड़ त्याग मरुभूमिकी शरणमें जायें ? आपके सुकुमार वन वन की लकड़ियां चुनें ? ऐश्वर्य की गोद में पलनेवाली महाराणी पर्वतोंकी कंदराओंमें ठोकरें खायें ? और मैं अपनी मातृभूमि में ही धनी-मानी बनकर ऐश्वर्य भोग करूं ? उपकारी स्वामी की सेवा त्याग आनन्द में मग्न रहूं ? विदेशी और विजातीय नरेश का नागरिक बन कर विलासमय जीवन व्यतीत करूं ? नहीं ! नहीं !! नहीं !!! मेरी आत्मा इसे स्वीकार नहीं करती! धिक्कार है ऐसे ऐश्वर्यको ! धिक्कार है ऐसे आनन्द को !! और धिक्कार है ऐसे विलास को !!! ____ प्रतापसिंह-किन्तु भामाशाह ! नियति का यह व्यतिक्रम अकाट्य है । भाग्य की अबाध गति को प्रतिकूल दिशामें मोड़ने की क्षमता किसी में नहीं। उसकी लेखनी से लिखित यह ललाट-लिपि नहीं 'मिटायी जा सकती। भामाशाह-मिटायी जा सकती है नाथ ! प्रयत्न करने से असम्भव सम्भव हो जाता है, असाध्य साध्य हो जाता है और अप्राप्य भी प्राप्य हो जाता है । अतः इस अन्तिम अवसर पर मेरी एक प्रार्थना अवश्य सुन लें। प्रतापसिंह-एक नहीं,अनेक सुन सकता हूं । कारण मुझे विश्वास है कि आपकी प्रार्थना मेवाड़-उद्धार की समस्या का कुछ समाधान अवश्य करेगी। भामशाह-कृपासिन्धो ! कृपया मरुभूमि को उन्मुख खड़े हुये १३३

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