Book Title: Bhamashah
Author(s): Dhanyakumar Jain
Publisher: Jain Pustak Bhavan

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Page 167
________________ भामाशाह आहुति दे दी । वस्तुतः आपके समान स्वदेश-भक्त से अभागा इतिहास शून्य है | अतः आपका खेद प्रकट करना अकारण है । प्रतापसिंह - वीरवर ! मेरी निर्बल भुजाएं देश-रक्षा करने में असमर्थ रहीं । यदि अन्तिम धन - इस तन की आहुति भी स्वतन्त्रता को अक्षुण्ण रख सकती तो मेवाड़ त्यागने का विचार न करता । पर जन्म भूमि को शत्रुओं की बन्दिनी बना अज्ञातवास करने जा रहा हूं, यही शूल मेरे अन्तर को विदीर्ण कर रहा है । आज में द्वितीय सामन्स - पर नाथ! आपने अन्य नरेशों के समान प्रलोभन पड़ स्वतन्त्रता नहीं बेंची है, जो आप इसके लिये पश्चात्ताप करें | अपनी मातृ-भूमि के प्रति आपने जितना कर्त्तव्य निभाया है, उतना कर्त्तव्यनिष्ठ इस वसुधापर न अवतरित हुवा है और न होगा । भविष्य में यदि धर्म भाग्य को अपने चरणों पर झुका सका तो मेवाड़ के नभमण्डल में पुनः शिशोदिया वंश की जय-पताका को फहरते सूर्य और चन्द्रमा देखेंगे । उस समय मेवाड़का अभिमानी राजसिंहासन अपने क्रोड़ में आपकी निष्कलंक देह को बैठा कर गौरवान्वित होगा । प्रतापसिंह–सामन्तवीर ! आप यह यथार्थ कहते हैं । इसके अतिरिक्त अब मेरे नेत्र मातृ-भूमि की अधिक दुर्दशा देखने में असमर्थ हैं । इसी कारण विदेश वास करने जा रहा हूं जिससे मातृ - मूमि पर होने वाले यवनों के अत्याचार दृष्टिगोचर न हों । चलो, विलम्ब करना उचित नहीं । ( साश्रुनयनों से चित्तौड़ की ओर देख गमनोद्यत, इसी क्षण दूर से अश्व दौड़ाते हुये भामाशाह को आगमन ) मैं १३१

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