Book Title: Bhamashah
Author(s): Dhanyakumar Jain
Publisher: Jain Pustak Bhavan

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Page 168
________________ भामाशाह मामाशाह-( नेपथ्य से ) हे मेवाड़-मुकुट ! हे साकार स्वातंत्र्य !! रुकिये, ठहरिये !! मेरी अन्तिम प्रार्थना सुनने की कृपा कीजिये। ___प्रतापसिंह-( अश्व की रश्मि खींच कर ) भामाशाह भागे आ रहे हैं । ( सामन्तों से ) आप सब अपने अश्व यहीं रोक उनके आगमन की प्रतीक्षा करें। ( आदेश पाते ही समस्त अश्वारोहियों का स्थगन, निकटस्थ भामाशाह का अश्व से उतर महाराणा के चरणों में नमन, प्रतापसिंह का भी अश्व से उतर मामाशाह को आलिंगन) प्रतापसिंह - (सजल नयन होकर) मंत्रिवर ! आपका हृदय आज इतना अधीर क्यों हो रहा है ? नयनों से अश्रुओं की मन्दाकिनी क्यों प्रवाहित हो रही है ? आपकी अधीरता का कारण जानने को मेरा हृदय व्याकुल हो रहा है। भामाशाह-मेवाड़ के मूर्तिमान् भाग्य ! धनाभावसे आपका मेवाड़त्याग ही मेरी अधीरता का कारण है । मेरी कृतघ्नता का ही यह भयंकर फल है । भगवान ! मेरी वाणी अपने स्वामीको इस प्रकार जानेसे क्यों नहीं रोकती ? उन्हें स्वभूमि त्याग करते देख नेत्र फूट क्यों नहीं जाते ? महाराणा ! आपके वियोग की कल्पना से मुझे अपना जीवन निरर्थक प्रतीत होता है। प्रताप सिंह-किन्तु भामाशाह ! आपका इसमें कोई दोष नहीं । भाग्य के रुष्ट हो जाने पर सभी प्रयास निष्फल हो जाते हैं । इसके अतिरिक्त आप मेवाड़-उद्धार के लिये प्रत्येक सम्भव प्रयत्न कर चुके हैं। भामाशाह-नहीं, मेवाड़ के प्राण ! मैं कुछ भी नहीं कर सका। १३२

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