________________
भामाशाह प्रतापसिंह-(क्रोध पूर्वक ) भामाशाह ! कुलकलंकी मानसिंह की यह धृष्टता ! वह मुझसे अपना सत्कार कराना चाहता है, पर यह सर्वथा असम्भव है। कदाचित धेनु के शंगों से दुग्धधार निकले, ज्वाला कुण्ड में प्रवेश करने से ग्रीष्म का सन्ताप दूर हो, पर मेरी निष्कलंक आत्मा उस कलंकी से मिलना स्वीकार नहीं कर सकती।
भामाशाह-स्वाभिमानिन् ! आपकी यह धृ णा निष्कारण नहीं, सकारण है । प्रत्येक स्वाभिमानी आत्मा ऐसे अवसर पर यही उद्गार प्रकट करेगी । पर अन्तिम निर्णय करने से पूर्व यह विचारणीय है कि मानसिंह मेवाड़ के अतिथि बन कर आ रहे हैं।
प्रतापसिंह - ( कुछ शान्त होकर ) आपका यह संकेत महत्वपूर्ण है, मैं इसकी सर्वथा उपेक्षा नहीं कर सकता । मुझे अतिथि-सत्कार से विमुख हो बप्पा रावल के यश को मलीन नहीं करना । पर स्वाभिमानरक्षा और अतिथि-सत्कार दोनों का निर्वाह कैसे सम्भव है ? इस समस्या का समाधान मैं आप पर ही अवलम्बित करता हूं।
भामाशाह-( क्षण भर सोच कर ) मेरा मत है कि मानसिंह का स्वागत आप स्वयं न कर अन्य व्यक्तियों से करायें। इस आचरण से स्वाभिमान-रक्षा और अतिथि-सत्कार उभय उद्देश्य सुसाध्य होंगे।
प्रतापसिंह-साधुवाद मंत्रीश्वर ! आपकी तत्कालिक विचार-शक्ति स्पृहणीय है। मैं इस सम्मति से सहमत हूं।
भामाशाह -पर यह व्यवस्था-भार कौन वहन कर सकेगा ?
प्रतापसिंह-मेरी दृष्टि में आपसे बढ़कर अन्य कोई इसके लिये उपयुक्त नहीं । कारण आप सुयोग्य मंत्री होने के साथ ही सुयोग्य व्यवस्थापक भी हैं।