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भामाशाह
भामाशाह-ताराचन्द्र ! इतना विवेचन भी तुम्हारा भ्रम न दूर कर सका । इसका कारण यही है कि तुमने कभी अहिंसा के सिद्धांतों को समझने की चेष्टा नहीं की।
ताराचन्द्र-आपका कथन यथार्थ है, यह मेरे प्रमाद का ही फल है । पर इस पर विशेष ऊहापोह करने की आवश्यकता भी नहीं पड़ी। अब आज अवसर उपस्थित है, तो उलझनको सुलझा लेना चाहता हूं।
भामाशाह-अवश्य सुलझाओ। देखो, अहिंसा धर्म में गृहस्थों के लिये संकल्पी, विरोधी, आरम्भी और उद्यमी-इस प्रकार हिंसा के चार भेद वर्णित हैं। इनमें से गृहस्थ साधक को प्रथम संकल्पी का त्याग आवश्यक है, शेष तीन का नहीं । हम जो यह रक्षात्मक युद्ध करने जा रहे हैं, यह विरोधी हिंसा ही होगी। इसमें हम धर्मभ्रष्ट न होंगे।
ताराचन्द्र-ठीक है, अहिंसा के अंचल में अनन्त अर्थ-भण्डार है । अपने देश, धर्म और संस्कृति की रक्षा में तत्पर योद्धा भी अहिंसापालक कहा जा सकता है-यह इस अहिंसा धर्म की उदारता है । मैं अभी तक समझता था कि अहिंसा धर्म दुर्बलता और दीनता का पोषक है; पर आज आपके दिये ज्ञान-दिवाकर से भ्रांति की यह यामिनी विलीन हो गयी।
भामाशाह-मेरा उद्देश्य पूर्ण हो गया । आज का यह प्रसंग भी सुन्दर रहा । अब जब विवेचन प्रारम्भ हुआ है तो एक बात और कहना अप्रासंगिक न होगा। वह यह कि वाह्य शत्रुओं का विजेता ही