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भामाशाह
दृश्य ३
स्थान - गहन वनस्थली
समय - शरद की एक संध्या
[ वसुधातल पर हरित दूर्वादल का संस्तरण, उस पर चमकते जलविन्दु, तरुशाखाओं के गवाक्षों से झांकती हुई ज्योत्स्ना, गगन की नीलमस्थली में मुक्तादल के समान चमकते हुये नक्षत्र, यत्र तत्र क्षणिक ज्योति प्रदर्शित करते हुये खद्योत, - गुहा के द्वार की एक शिला पर अर्द्धनिद्रित श्रान्त महारानी प्रतापसिंह, उनकी शुश्रूषा करती हुई महाराणी पद्मा और समीप ही लघुवयस्का राज कुमारी ]
राजकुमारी - ( महाराणी के कण्ठ से लिपट कर ) माँ ! रोटी दो । पद्मा - ( प्रेम पूर्वक ) बेटी ! अभी-अभी तूने रोटी खायी थी, फिर मांगने आ गयी ?
राजकुमारी-( उभय करों से नेत्र मलते हुए ) तुमने आधी रोटी ही दी थी जिसे खाये बड़ी देर हो गयी, अब पुनः भूख लग आयी है । पद्मा - ( कृत्रिम क्रोध से ) चल, बड़ी भूखवाली ! अभी सोजा, जो आधी रोटी शेष बची है वह सबेरे के लिये हो जायेगी ।
राजकुमारी - वह तुम अभी दे दो, मैं सबेरे नहीं मांगूगी ।
पद्मा - ( राजकुमारी को दूर करते हुए ) चल हट, तू बड़ी हठीली है । एक बार के समझाने से नहीं मानती । अब शोर मत कर, अन्यथा - महाराज की निद्रा भंग हो जायेगी ।
राजकुमारी - तब तो वे मुझे अवश्य रोटी दिला देंगे । पद्मा–मान जा, हठ मत कर । (प्रेमसे) आ, तुझे गोदी में सुला लूं ।
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