Book Title: Bhamashah
Author(s): Dhanyakumar Jain
Publisher: Jain Pustak Bhavan
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भामाशाह संधि कर सारे दुःखोंका अंत किये देता हूं। अब इसके सिवा आपत्ति से मुक्त होने का मेरे पास कोई उपाय नहीं।
( कागज, मसिपात्र और लेखनी ले महाराणा को संधिपत्र लिखने के लिए उद्यत देख सिंहनी सी खड़ी हो महाराणी का विघ्न करण, कागज छीन मसिपात्र का एक ओर प्रक्षेपन)
पद्मा-नाथ ! आप यह क्या करने जा रहे हैं ? आपने सम्पूर्ण जीवन स्वतंत्रता के संग्राम में बिताया और आज एक साधारण-सी पारिवारिक घटना के कारण यवन दास बन रहे हैं ? नहीं, नहीं, मैं यह कभी नहीं होने दूंगी। यदि आपही कायर बन यवनों से संधि कर बैठेगे तो मेवाड़ की स्वाधीनता का भार कौन अपने माथे पर लेगा ? आपकी ही प्रण-पूर्ति में अनेकों वीर जननियों ने अपनी गोदी के लाल वार दिये । अनेकों नव बधुओं ने अपने प्राणाधार भेंटकर वैधव्य की यातनायें सहीं। अनेकों राजपूत वीरांगनाओं ने जौहर कर अपनी दुर्लभ देह अग्नि में भस्म की । आपकी ही प्राण रक्षा में चेतक ने अपने प्राण विर्सजन किये । इतने प्राणियों के प्राण लेकर आपको संधि-पत्र लिखने का अधिकार ही कहां ? यदि अविराम युद्धसे आपकी भुजाएं शिथिल हो गयी हों तो अपना खड्ग मुझे दीजिये, मैं रणचण्डी का रूप धारण कर मेवाड़-उद्धार का प्रयत्न करूं ।
प्रतापसिंह- ( महाराणी का कर अपने कर में लेकर ) बस प्रियतम ! अधिक लज्जित मत करो। तुम-सी वीर-वल्लभा पानेका मुझे गौरव है। वस्तुतः आजकी पारिवारिक घटना से मेरी वीर-प्रतिज्ञा का पोत डगमगा चला था; स्वतन्त्रता के साधना-दीपकी लौ बुझ चली थी;

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