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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः ॥१३८६ ॥
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एवं बयासी - परिणममाणा पोग्गला परिणया नो अपरिणया परिणमंतीति पोगला परिणया णो अपरिणया, से कहमेयं भंते! एवं १, गंगदस्त्तादि ! समणे भगवं महाबीरे गंगदत्तं एवं व्यासी- अहंपि णं गंगदत्ता ! एवमाइक्खामि परिणममाणा पोग्गला जाब नो अपरिणया सच्चेणमेसे अट्ठे, तए णं से गंगदत्ते देवे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमहं सोचा निसम्म हह्तुट्ठे समणं भगवं महावीरं वंदनि नम० २ नचासन्ने जाब पज्जुवासति, नए णं समणे भ० महावीरे गंगदत्तस्स देवस्स तीसे य जाव धम्मं परिकहेह जाव आराहए भवति, त णं से गंगदत्ते देवे समणस्स भगवओ० अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हट्टतुट्ठे उट्टाए उट्ठेति उ० २ समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति २ एवं वयासी अहं यह भंते ! गंगदन्ते देवे किं भवसिद्धिए अभव सिद्धिए १, एवं जहा सुरियाभो जाव बत्तीसतिबिहं नट्टविहं उबदंसेति उव० २ जात्र तामेव दिसं पडिगए (सूत्रं ५७६) ।।
जे वखते श्रमण भगवंत महावीर पूर्व प्रमाणेनी वात पूज्य गौतमने कही रह्या छे तेज बखते ते ( सम्यग्दृष्टि देव ) त्यां शीघ्र आन्यो अने पछी ते देवे श्रमण भगवंत महावीरने त्रण वार प्रदक्षिणा करी वांदी नमी आ प्रमाणे करूं के [प्र० ] हे भगवन् ! महाशुक्र कल्पमां महासामान्य नामना विमानमां उत्पन्न थरला मायी मिध्यादृष्टि देवे मने आ प्रमाणे कछु के परिणाम पामतां पुद्गलो 'परिणत' न कहेवाय, पण 'अपरिणत' कहेवाय. कारण के ते पुद्गलो हजी परिणमे छे माटे ते 'परिणत' न कहेवाय, पण 'अपरिणत' कहेवाय पछी में ते मायी मिध्यादृष्टि देवेने आ प्रमाणे कछु के-परिणाम पामता पुद्गलो 'परीणत' कहेवाय, पण 'अपरिणत' न कहेवाय. कारण के ते वृद्धलो परिणमे छे, माटे ते 'अपरिणत' न कहेवाय, पण 'परिणत' कहेवाय. तो हे भगवन् । ए मारुं
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१६ शतके उद्देशः५ ॥१३८६॥