Book Title: Bhagawan Mahavir Smaranika 2009
Author(s): Mahavir Sanglikar
Publisher: Jain Friends Pune

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Page 11
________________ क्रान्ति का सिंहनाद - आचार्य महाप्रज्ञ इस विश्व में प्रकाश और तिमिर की किया। स्मृति है?' भांति सत् और असत् अनादिकाल से है। भगवान् के शासन में दास, शूद्र और भंते! है।' कोई भी युग केवल प्रकाश का नहीं होता चांडाल जाति के व्यक्ति दीक्षित हुए और आर्यो! तुम कहां प्रव्रजित हो, इसकी और कोई भी युग केवल अन्धकार का नहीं उन्हें ब्राह्मणों के समान उच्चता प्राप्त हुई। तुम्हें स्मृति है?' होता। आज भी प्रकाश है और महावीर के भगवान् ने अपनी साधु-संस्था को प्रयोगभूमि भंते! है। हम भगवान् के शासन में युग में भी अन्धकार था। भगवान् ने मानवीय बनाया। उसमें जातिमद तथा गोत्रमद को प्रव्रजित हैं।' चेतना की सहस्र रश्मियों को दिग्-दिगंत में निर्मूल करने के प्रयोग किए। आज हमे 'आर्यों! तुम्हें इसका पता है, मैंने किस फैलने का अवसर दिया। मानस का कोना- अचरज हो सकता है कि साधु-संस्था में इस धर्म का प्रतिपादन किया?' । कोना आलोक से भर उठा। प्रयोग का अर्थ क्या है? किन्तु ढाई हजार भंते! हमे वह ज्ञात है। भगवान् ने समताभगवान् महावीर ने अहिंसा को समता वर्ष पुराने युग में यह अचरज की बात नहीं धर्म का प्रतिपादन किया है।' की भूमिका पर प्रतिष्ठित कर उस युग की थी। उस समय यह वास्तविकता थी। बहुत 'आर्यों! समता धर्म में जाति मद के लिए चिन्तनधारा को सबसे बड़ी चुनौती दी। सारे साधु-संन्याशी जाति-गोत्र की उच्चता कोई स्थान है?' अहिंसा का सिद्धान्त श्रमण और वैदिक - और नीचता के प्रतिपादन में अपना श्रेय भंते! नहीं है। पर हमारे पुराने संस्कार दोनों को मान्य था। किन्तु वैदिकों की मानते थे। यह विषमता धर्म के मंच से ही अभी छूट नहीं रहे हैं।' अहिंसा शास्रों पर प्रतिष्ठित थी। उसके साथ पाली-पोसी जाती थी। इसका विरोध भी उस समय भगवान ने उन्हें पथ-दर्शन विषमता भी चलती थी। उसके घटक तत्व धर्म के मंच से हो रहा था। भगवान् महावीर दियाभी चलते थे। ने समता के मंच का नेतृत्व सम्भाल लिया। जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, उग्र पुत्र या उनके सशक्त नेतृत्व को पाकर समता का लिच्छवि मेरे समता-धर्म में दीक्षित होकर १. जातिवाद आन्दोलन प्राणवान् हो गया। गोत्र का मद करता है, वह लौकिक आचार विषमता का मुख्य घटक था जन्मना भगवान के संघ में सम्मिलित होनेवाले का सेवन करता है।' जाति का सिद्धान्त। ब्राह्मण जन्मना श्रेष्ठ माना व्यक्ति को सबसे पहले समता (सामायिक) वह सोचे - क्या परदत्तभोजी श्रमण को जाता है और शूद्र जन्मना तुच्छ। इस का व्रत स्वीकारना होता था, फिर भी कुछ गोत्र-मद करने का अधिकार है?' जातिवाद के विरोध में उन सबने आवाज मुनियों के जाति-संस्कार क्षीण नहीं होते। वह सोचे - क्या उसे जाति और गोत्र उठाई जो अध्यात्म-विद्या में निष्णात थे। १. एक बार कुछ निर्ग्रन्थ भगवान् के पास त्राण दे सकते हैं या विद्या और चरित्र?' बृहदारण्यक उपनिषद में याज्ञवल्क्य कहते आकर बोले - 'भंते! हम भगवान् के धर्म- २. एक निर्ग्रन्थ ने पूछा - 'तो भंते! हैं - 'ब्रह्मनिष्ठ साधु ही सच्चा ब्राह्मण है।' शासन में प्रव्रजित हुए हैं। भगवान् ने हमें हमारा कोई गोत्र नहीं है?' किन्तु इस प्रकार के स्वर इतने मंद थे कि समता-धर्म में दीक्षित किया है। फिर भी भंते! 'सर्वथा नहीं।' जातिवाद के कोलाहल में जनता उन्हें सुन हमारे कुछ साथी अपने गोत्र का मद करते है 'भंते! यह कैसे?' ही नहीं पाई। भगवान महावीर ने उस स्वर और अपने बड़प्पन को बखानते हैं।' 'तुम्हारा ध्येय क्या है?' को इतना बलवान् बनाया कि उसकी ध्वनि भगवान् ने उस साधु-कुल को आमंत्रित भंते! मुक्ति।' जन-जन के कानों से टकराने लगी। भगवान् कर कहा 'वहां तुम्हारा कौन-सा गोत्र होगा?' ने कर्मणा जाति के सिद्धान्त का प्रतिपादन 'आर्यो! तुम प्रव्रजित हो, इसकी तुम्हे 'भंते! वह अगोत्र है।' भगवान महावीर जयंती स्मरणिका २००९। ९

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