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पण्णा समिक्खए धम्म
- उपाध्याय अमरमुनि
धर्म शब्द जितना अधिक व्यापक स्तर अतीत के इतिहास में देखते हैं। आज भी इन्सान उपदिष्ट है कि प्रज्ञा के द्वारा ही धर्म की समीक्षा पर प्रचलित है और उसका उपयोग किया जा का खून बेदर्दी से बहाया जा रहा है। अतः होनी चाहिए। सूत्र है - "पण्णा समिक्खए रहा है, उतनी ही उसकी सूक्ष्मतर विवेचना नहीं धर्म-तत्त्व की समस्या का समाधान कहां है, धम्मम्' अर्थात् प्रज्ञा ही धर्म की समीक्षा करने की जा रही है। इस दिशा में उचित प्रयत्न जो इस पर कुछ न कुछ चिन्तन करना आवश्यक में समर्थ है। और धर्म है भी क्या? तत्त्व का अपेक्षित हैं, वे नहीं के बराबर हैं और जो कुछ हैं।
अर्थात् सत्यार्थ का विशिष्ट निश्चय ही धर्म है। हैं भी, वे मानव चेतना को कभी-कभी मानव, धरती पर के प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ और यह विनिश्चय अन्तत: मानव की प्रज्ञा पर धुंधलके में डाल देते हैं।
माना गया है। उससे बढकर अन्य कौन श्रेष्ठतर ही आधारित है। शास्र और गुरु संभवत: कुछ ____धर्म क्या है? इसका पता हम प्रायः विभिन्न प्राणी है? स्पष्ट है, कोई नहीं है। चिन्तन-मनन सीमा तक योग दे सकते हैं। किंतु, सत्य की मत-पंथों, उनके प्रचारक गुरुओं एवं तत्तत् करके यथोचित निर्णय पर पहुँचने के लिए आखिरी मंजिल पर पहुँचने के लिए तो अपनी शास्रों से लगाते हैं। और, आप जानते हैं, उसके पास जैसा मन-मस्तिष्क है, वैसा धरती प्रज्ञा ही साथ देती हैं। 'प्र' अर्थात् प्रकृष्ट, उत्तम, मत-पंथों की राह एक नहीं है। अनेक प्रकार पर के किसी अन्य प्राणी के पास नहीं है। मानव निर्मल और 'ज्ञा' अर्थात ज्ञान। के एक-दूसरे के सर्वथा विरुद्ध क्रिया-काण्डों अपनी विकास यात्रा में कितनी दूर तक और जब मानव की चेतना पक्ष-मुक्त होकर के नियमोपनियमों में उलझे हुए हैं, ये सब। ऊँचाईयों तक पहुँच गया है, यह आज सबके इधर-उधर की प्रतिबद्धताओं से अलग होकर इस स्थिती में किसे ठीक माना जाए और किसे सामने प्रत्यक्ष है। कोई स्वप्न या कहानी नहीं सत्याभिलक्षी चिन्तन करती है, तो उसे अवश्य गलत? धर्म गुरुओं एवं शास्रों की आवाजें है। आज मानव ऊपर चंद्रलोक पर विचरण ही, धर्म तत्त्व की सही दृष्टि प्राप्त होती है। यह भी अलग-अलग हैं। एक गुरु कुछ कहता कर रहा है और नीचे महासागरों के तल को छू ऋतम्भरा प्रज्ञा है। ऋत् अर्थात् सत्य को वहन है, तो दूसरा गुरु कुछ और ही कह देता है। रहा है। एक-एक परमाणु की खोज जारी है। करनेवाली शुद्ध ज्ञानचेतना। योग दर्शनकार इस स्थिती में विधि-निषेध के विचित्र यह सब किसी शास्र या गुरु के आधार पर पतंजलि ने इसी संदर्भ में एक सूत्र उपस्थित चक्रवात में मानव मस्तिष्क अपना होश खो नहीं हुआ है। इसका मूल मनुष्य के मन की किया है - 'ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा', उक्त सूत्र की बैठता है। वह निर्णय करे, तो क्या करे? यह चिन्तन यात्रा में ही है। अतः धर्म-तत्त्व की व्याख्या भोजवृत्ति में इस प्रकार है - स्थिती आज की ही नहीं, काफी पुरातन काल खोज भी इधर-उधर से हटा कर मानव- "ऋतं सत्यं विभर्ति कदाचिदपि न से चली आ रही है। महाभारतकार कहता है मस्तिष्क के अपने मुक्त चिन्तन पर ही आ विपर्ययेणाच्छाद्यते सा ऋतंभरा प्रज्ञा - श्रुति अर्थात् वेद भिन्न-भिन्न हैं। स्मृतियों खडी होती है।
तस्पिन्सति भवतीत्यर्थः।” की भी ध्वनि एक नहीं है। कोई एक मुनि भी यह मैं नई बात नहीं कर रहा हूँ। आज से अर्थात् जो कभी भी विपर्यय से आच्छादित ऐसा नहीं है, जिसे प्रमाण रूप में सब लोक अढाई हजार वर्षं से भी कहीं अधिक पहले न हो, वह सत्य को धारणा करनेवाली प्रज्ञा मान्यता दे सके। धर्म का तत्त्व एक तरह से श्रावस्ती की महती सभा में दो महान् ज्ञानी होती है। अंधेरी गुफा में छिप गया है -
मुनियों का एक महत्त्वपूर्ण संवाद है। मुनि हैं - माना कि साधारण मानव की प्रज्ञा की भी “श्रुतिर्विभिन्ना- स्मृतयो विभिन्नाः केशी और गौतम। मैं देखता हूँ कि उक्त संवाद एक सीमा है। वह असीम और अनन्त नहीं नैकोमुनिर्यस्य वचः प्रमाणम्। में कहीं पर भी अपने-अपने शास्ता एवं शास्रों है। फिर भी उसके बिना यथार्थ सत्य के निर्णय धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम्। को निर्णय के हेतु बीच में नहीं लाया गया है। का अन्य कोई आधार भी तो नहीं है। अन्य
विश्व जगत में यत्र-तत्र अनेक उपद्रव, सब निर्णय प्रज्ञा के आधार पर हुआ है। जितने आधार हैं, वे तो सूने जंगल में भटकाने विरोध, संघर्ष, यहाँ तक की नर-संहार भी वहाँ स्पष्ट उल्लेख है, जो गौतम के द्वारा जैसे है और परस्पर टकरानेवाले हैं। अत: जहाँ
भगवान महावीर जयंती स्मरणिका २००९ । १३