Book Title: Bhagawan Mahavir Smaranika 2009
Author(s): Mahavir Sanglikar
Publisher: Jain Friends Pune

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Page 43
________________ कन्नड भाषा-साहित्य और संस्कृती के संवर्धन में जैनाचार्यों का योगदान - डॉ. ए. एन. उपाध्ये इतिहास का अस्तित्व उन्हीं के लिए भगवान महावीर प्रथम व्यक्ति थे प्रयोग किया की उनकी अभिव्यक्ती में अपने है, जो इसका बोध प्राप्त करने का यत्न करते जिन्होंने मगध की जन-भाषा में उपदेश दिया समकालीन कृतिकारों की अपेक्षा शैली की हैं। कोई भी समाज, जो अपने पूर्वजों की और बुद्ध ने भी वही माध्यम अपनाया। उन पूर्णता प्रतिलक्षित है। वे उस स्वर्णयुग की उपलब्धियों के प्रति जागरूक नहीं है, उसे सभी महापुरुषों ने यह उदाहरण अपनाया संचेतना को अभिव्यक्ती दे रहे थे, जिस युग अपने स्वतन्त्र अस्तित्व का काल-गर्त में जिनके मन में जन-साधारण के मानसिक का प्रारंभ राष्ट्रकुटों के समय में हुआ था तथा विलीन होने का सदैव खतरा है। क्योंकि विकास का ध्येय था। अशोक और खारवेल जिसमें वीरसेन और जिनसेन (८३७ ईस्वी) अतीत की आधारशिला तथा वर्तमान के ने अपने शिलालेख प्राकृत में उत्कीर्ण ने अपनी महान टीकाएँ धवला, जय धवला समुचित प्रयत्नों के बिना एक समादरणीय कराये। हमारे सारे इतिहास में हमारे गुरुओं और महाधवला लिखीं, जो भारतीय भविष्य का निर्माण नहीं हो सकता। कर्नाटक ने, जिन्होंने भी जन-कल्याण का कार्य करना वाङ्मय के इतिहास में महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ का अपना अतीत है, और इसका भविष्य चाहा, हमेशा जन-भाषा को अपनाया। हमारे हैं। जैन सिद्धांत के लिए राष्ट्रकूट-राज्य मे अवश्य ही उन्नतिशील है। कर्नाटक जैसा सामने बसवेश्वर, ज्ञानेश्वर, तुलसीदास, उन्होंने जो किया वही काम उसी समय में की इसके नाम से ही प्रकट है, कृष्ण और विद्यापति आदि के ज्वलन्त उदाहरण मौजूद सायणाचार्य ने विजयनगर राज्य के अंतर्गत कावेरी के जल से प्रक्षालित उपजाऊ काली है। वेदों के लिए किया । जैन ग्रन्थकारों के कन्नड जमीन वाला प्रदेश है। स्वभावतः यह महावीर का अनुकरण जैन आचार्यों तथा संस्कृत-प्राकृत को समृद्ध करने के प्रयत्न समृद्धीशाली राज्यों और सांस्कृतिक केन्द्रों तथा ग्रन्थकारों ने किया और वे जहाँ भी रहे समानान्तर रूप से चलते रहे। राष्ट्रकुट-नरेश के विकास के लिए महत्त्वपूर्ण आधार सिद्ध वहाँ की जन, भाषा को समृद्ध किया। नृपतुंग के नाम से प्रसिद्ध कविराज मार्ग' हुआ। जैन सन्तों का इस प्रदेश से सम्बन्ध तमिलनाडु, कर्नाटक, राजस्थान, गुजरात (८५० ईस्वी) से स्पष्ट ज्ञात होता है की उस चन्द्रगुप्त मौर्य के समय से रहा है जब वह तथा भारत के अन्यान्य प्रदेशों के लिए यह समय कन्नड साहित्य समृद्ध रूप प्राप्त कर अपना राज्य त्याग कर आचार्य भद्रबाहु के बात समान रूप से सत्य है। चुका था। पहले बताये तीन महाकवियों के साथ श्रवणबेलगोल में आये। कन्नड की सर्वप्राचीन ज्ञात रचनाएँ- अतिरिक्त, नागचंद्र (लगभग ११०० ई०), जैनाचार्य जहाँ भी गये; उन्होंने वहाँ की 'वड्ढा -राधने' और 'चामुण्डरायपुराण' नयसेन (१११२ ई.) अग्गल (११८६ ई०) जनभाषा को अपनाया और उसे प्रभावकारी (९७८ ईस्वी) जैन कृतिकारों की है। इनमें आदि ने एक आकर्षक शैली का विकास माध्यम के रूप में समृद्ध किया। उनके लिए से प्रथम अर्थात् वड्ढाराधने (अनुमानित किया और परवर्ती कवियों ने उनका भाषा मात्र एक माध्यम थी। उन्होंने भाषा ९०० ईस्वी) भाषा तथा विषय वस्तु दोनों अनुकरण किया। अण्डय्या (१२३५ को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। उनका ही दृष्टियों से साहित्य का एका विशिष्ट ई०) की शैली और शब्द-संचय कन्नड के उद्देश्य, सामाजिक जन-मानस को सद्- अवदान है। कन्नड काव्यो में काव्यात्मक विकास में एक नयी दिशा को रेखांकित आचरण के लिए शिक्षित करना था ताकि । शैली का विकास तीन जैन कवियों ने किया, करते है और इसका पूर्ण भाषा-वैज्ञानिक समाज को स्थिर आधार मिले। इसलिए जो रत्नत्रय के नाम से जाने जाते है- पम्प विश्लेषण अनुसंधान के विषय है। वास्तव उन्होंने अपनी शक्ति को ऐसे साहित्य के (९४२ ईस्वी), पोन्न (९५० ईस्वी) और में कन्नड के विशुद्ध लेखकों में उन्हे निर्माण में लगाया जो समाज को आचार- रन्न (९६३ ईस्वी)। ये सभी संस्कृत की प्राचीनतम माना जाना चाहिए। विषयक स्तर और नैतिक मूल्यों को उन्नत काव्य शैली से पूर्णरूप से अवगत थे। उन्होंने भट्टाकलंक (१६०४ ई०) ने एक स्थल करे। कन्नड भाषा का इस प्रभावकारी ढंग से पर यह प्रश्न उठाया है की शास्त्रों के लिए भगवान महावीर जयंती स्मरणिका २००९। ४१

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