Book Title: Bhagawan Mahavir Smaranika 2009
Author(s): Mahavir Sanglikar
Publisher: Jain Friends Pune

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Page 59
________________ अभी दोन-तीन वर्ष पहले जब मैं ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद का संग्रह देख रहा था तो मुझे इसकी पूरी प्रति प्राप्त हो गई, जो सम्वत् १५६९ की लिखी हुई है। इसके अनुसार यह प्राकृत कामशास्र छह परिच्छेदों में पूर्ण होता है। जैनेत्तर कवि के रचित प्राकृत के इस एकमात्र कामशास्त्र को शीघ्र प्रकाशित करना चाहिए। प्राकृत की भाँति अपभ्रंश साहित्य का कई दृष्टियों से बहुत ही महत्व है, पर अभी तक इस दृष्टि से अध्ययन एवं मूल्यांकन नहीं किया गया है । अन्यथा जिस प्रकार प्राचीन भारतीय संस्कृति, साहित्यिक परम्परा और भाषाविज्ञान की दृष्टि से संस्कृत साहित्य का आलोचनात्मक एवं सांस्कृतिक अध्ययन किया गया व किया जाता रहा हैं, उसी तरह प्राकृत, अपभ्रंश साहित्य का भी होता। जैसा कि पहले बतलाया गया है, लोक भाषाओं का उत्स प्राकृत भाषा में ही है। हजारो लोकप्रचलित शब्द, प्राकृत से अपभ्रंश में होते हुए वर्तमान रूप में आये है और कई शब्द तो ज्यों के त्यों वर्षों से प्रयुक्त होते आ रहे है। कई व्याकरण के प्रत्यय आदि भी प्रान्तीय भाषा में प्राकृत से सम्बधित सिद्ध होते है। इस संबंध में अभी एक विस्तृत निबन्ध 'श्रमण' में छपा है। 'जैन भारती' में प्रकाशित तेरापन्थी साध्वी के लेख में और पं. बेचरदास जी आदि के ग्रंथों में ऐसे सैकड़ों शब्द उद्धृत किये गये हैं, जिनका मूल संस्कृत में न होकर प्राकृत में है। जैन आगमों में प्रयुक्त हजारों हजारों शब्द सामान्य परिवर्तन के साथ आज भी प्रान्तीय भाषाओं में बोले जाते हैं। सर्वाधिक है। क्योंकि जनजीवन का जितना अधिक वास्तविक चित्रण प्राकृत, अपभ्रंश साहित्य में मिलता है, उतना संस्कृत साहित्य में नहीं मिलता। क्योंकि संस्कृत के विद्वान अधिकांश राज्याश्रित एवं नगरों में रहनेवाले थे अतः गाँवों और साधारण नागरिकों का स्वाभाविक चित्रण वे अधिक नहीं कर पाये । अलंकारों आदि से संस्कृत महाकवियों ने अपने काव्यों को बोझिल बना दिया, क्योंकि उनक उद्देश पांडित्य-प्रदर्शन ही अधिक रहा। जबकि प्राकृत साहित्य के प्रधान निर्माता जैनमुनिगण, गाँवों में और जनसाधारण में अपने साहित्य का प्रचार अधिक करते रहे हैं, इस दृष्टि से लोकरुचि को ध्यान में रखते हुए लोककथाओं, द्रष्टान्तों को सरल भाषा में लिखने का प्रयास करते थे। जिससे साधारण लोग भी अधिकाधिक लाभ उठा सके। डॉ० मोतीचन्द्रजी आदि ने प्राकृत साहित्य की प्रशंसा करते हुए कुवलयमाला आदि सांस्कृतिक महत्त्व बहुत अधिक बतलाया है। अतः भारतीय जन-जीवन और लोकप्रचलित रीति-रिवाज, विश्वास आदि के संबंध में प्राकृत साहित्य से बहुत महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हो सकती हैं। बहुत कम लोगों को यह मालूम होगा कि मध्यकाल में संस्कृत एवं लोक भाषाओं का इतना अधिक प्रभाव बढ़ जाने पर भी प्राकृत साहित्य के निर्माण की परम्परा निरन्तर चलती रही है, किसी भी शताब्दी का कोई चरण शायद ही ऐसा मिले जिसमें थोड़ी बहुत प्राकृत रचनाएँ न हुई हो, वर्तमान में भी यह परम्परा चालू है। वर्तमान आचार्य 'विजयपद्मसूरि' ने प्राकृत में काफी लिखा है। विजयकस्तूरिसूरि ने भी कई संस्कृत ग्रंथों को प्राकृत में बना दिया है। तेरापन्थी मुनिश्री चन्दनमुनीजी रचित संस्कृत रयणवाल कहा अभी-अभी प्रकाशित हुई है और जयाचार्य का प्राकृत जीवनचरित्र जैन और जबाचार्य का प्राकृत जीवनचरित्र जैन भारती में निकल रहा है। और भी कई साधु - साध्वी प्राकृत में लिखते हैं तथा भाषण देते हैं और प्राकृत के अभ्यास में निरन्तर लगे हुए है। पर अभी कोई ग्रंथ ऐसा नहीं लिखा गया जिसमें भगवान महावीर जयंती स्मरणिका २००९ । ५७ प्राकृत जनभाषा थी, इसलिए जनता में प्रचलित अनेक काव्य विधाएँ एवं प्रकार अपभ्रंश और प्रान्तीय भाषा में अपनाये गये। सैकडों व हजारों कहावतें एवं मुहावरें भी प्राकृत ग्रंथों में मिलते है एवं आज भी लोकव्यवहार में प्रचलित है। प्राकृत ग्रंथों की कहावत जो राजस्थान में अब भी बोली जाती हैं, उनके संबंध में डॉ. कन्हैय्यालाल सहल का शोधप्रबन्ध द्रष्टव्य है । प्राकृत साहित्य का सांस्कृतिक महत्त्व प्रत्येक शताब्दी में बनी हुई रचनाओं की काल क्रमानुसार सूची दी गई हैं। मेरी राय में ऐसा एक ग्रंथ शीघ्र ही प्रकाशित करना चाहिए। जिससे ढाई हजार वर्षों की प्राकृत साहित्य की प्रगति और अविच्छिन्न प्रवाह की ठीक जानकारी मिल सके। प्राकृत के मध्यकालीन बहुत से ग्रंथ अप्रकाशित है। उनके प्रकाशन की योजना बनानी चाहिए। कुछ प्राकृत साहित्य परिषद से प्रकाशित हुए है। पर मेरा सुझाव यह है कि सबसे पहले प्राकृत की छोटी-छोटी रचनाएँ जितनी भी हैं, उनका संग्रह काव्यमाला संस्कृत सिरीज की तरह प्रकाशित किया जाये । अन्यथा वे थोडे समय में ही लुप्त हो जायेंगी । अभी तक न तो उनकी जानकारी ही ठीक से प्रकाश में आई है, न उनके संग्रह ग्रंथ ही अधिक निकलते हैं। १२वी शताब्दी से ऐसी अनेक संग्रह प्रतियां मिलने लगती है और फुटकर ग्रंथ भी हजारो मिलते हैं। जो अद्यावधि सर्वथा उपेक्षित से रहे हैं। - प्राकृत से अपभ्रंश और उससे प्रान्तीय भाषाएँ निकलीं यह भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि परवर्ती हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती रचनाओं में उन रचनाओं की भाषा की कवियों ने स्वयं प्राकृत बतलाया है। वहाँ प्राकृत शब्द का अर्थ जन भाषा ही अभिप्रेत है। अपभ्रंश के दिगम्बर चरित काव्य तो कुछ प्रकाशित हुए हैं और उनकी जानकारी भी ठीक से प्रकाश में आई है पर श्वेताम्बर अपभ्रंश रचनाओं का समुचित अध्ययन अभी तक नहीं हो पाया है। जितनी विविधता श्वेताम्बर अपभ्रंश साहित्य में है, दिगम्बर अपभ्रंश साहित्य में नहीं है। अत: हिंदी, राजस्थानी, गुजराती काव्य रूपों या प्रकारों का अध्ययन करते समय मैंने प्रायः सभी की परम्परा अपभ्रंश से जोडने या बतलाने का प्रयत्न किया है। विविध विधाओं एवं प्रकारों की मूल अपभ्रंश रचनाओं का संग्रह भी प्रकाशित किया जाना आवश्यक है। हमने ऐसी कई रचनाएँ अपने ऐतिहासिक जैनकाव्य संग्रह, दादाजिनदत्तसूरि, मणिधारी (पान क्र. ८० पहा )

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