Book Title: Bhagawan Mahavir Smaranika 2009
Author(s): Mahavir Sanglikar
Publisher: Jain Friends Pune

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Page 57
________________ प्राकृत साहित्य की विविधता और विशालता - अगरचंद नाहटा मानव की स्वाभाविक बोलचाल की भाषा की ओर अधिक होने लगा तब श्वेताम्बर प्राकृत साहित्य विविध प्रकार का और का नाम प्राकृत है। यह भाषा देशकाल के भेद सम्प्रदाय के जो ग्रंथ रचे गये, उनकी भाषा को बहुत ही विशाल है। अभी तक बहुत सी छोटीसे अनेक रूपों और नामों से प्रसिद्ध है। आगे महाराष्ट्री प्राकृत और दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रंथों छोटी रचनाओं की तो पूरी जानकारी भी प्रकाश चलकर यह कुछ प्रकारों में विभक्त हो गई और की भाषा को 'शौरसेनी' प्राकृत कहा गया। में नहीं आयी है। वास्तव में छोटी होने पर भी उन्हीं के लिए प्राकृत संज्ञा रूढ हो गई। जैसे- प्राकृत का प्रभाव कई शताब्दियों तक बहुत ये रचनाएं उपेक्षित नहीं होनी चाहिए। क्योंकि अर्धमागधी, महाराष्ट्री, शौरसेनी, पैशाची अच्छा रहा। प्राकृत का प्रभाव कई शताब्दियों इनमें से कई तो बहुत ही सारगर्भित और आदि। बोली के रूप में तो प्राकृत काफी पुरानी तक बहुत अच्छा रहा। पर भाषा तो एक प्रेरणादायी है। बडे-बडे ग्रंथों में जो बातें विस्तार है। पर साहित्य उसका इतना पुराना नहीं विकसनशील तत्त्व है। अत: उसमें परिवर्तन से पायी जाती हैं, उनमें से जरूरी और काम मिलता। इसलिए उपलब्ध ग्रंथों में सबसे पुराने होता गया और पांचवी-छठवीं शताब्दी में उसे की बातें छोटे-छोटे प्रकरण ग्रंथों और कुलकों 'वेद' माने जाते है, जिनकी भाषा वैदिक- 'अपभ्रंश' की संज्ञा प्राप्त हुई। अपभ्रंश में भी आदि में गूंथ ली गई है। उनका उद्देश्य यही था संस्कृत है। भगवान महावीर और बुद्ध ने जैन कवियों ने बहुत बडा साहित्य निर्माण किया कि बडे-बडे ग्रंथ याद नही रखे जा सकते और जनभाषा में धर्म प्रचार किया। दोनों ही है। अपभ्रंश से ही आगे चलकर उत्तर भारत छोटे ग्रंथों या प्रकरणों को याद कर लेना सुगम समकालीन महापुरुष थे और उनका विहार की सभी बोलियां विकसित हुई। उनमें से होगा, अत: सारभूत बातें बतलाने व समझाने विचरण प्रदेश भी प्रायः एक ही रहा है। पर राजस्थानी, गुजराती और हिंदी में भी प्रचुर में सुविधा रहेगी। ऐसे बहुत से प्रकरण और दोनों की वाणी जिन भाषाओं में उपलब्ध है, जैन साहित्य रचा गया। ___ कुलक अभी तक अप्रकाशित है। उनका संग्रह उनमें भिन्नता है। पाली नाम यद्यपि भाषा के प्राकृत के प्रचार और प्रभाव के कारण ही एवं प्रकाशन बहुत ही जरूरी है- अन्यथा कुछ रूप में प्राचीन नाम नहीं है, पर बौद्ध त्रिपिटकों संस्कृत के बड़े-बड़े कवियों ने जो नाटक लिखे, समय के बाद वे अप्राप्त हो जायेंगे। ऐसी रचनाएं की भाषा का नाम पाली प्रसिद्ध हो गया। उनमें जन-साधारण की भाषा के रूप में करीब फुटकर पत्रों और संग्रह प्रतियों में पाई जाती भगवान महावीर की वाणी जो जैन आगमों में आधा भाग प्राकृत में लिखा है। कालिदास, हैं। हस्तलिखित ग्रंथों की सूची बनाते समय प्राप्त, उसे 'अर्धमागधी' भाषा की संज्ञा दी गई भास, आदि के नाटक इसके प्रमाण है। शिला- भी उनकी उपेक्षा कर दी जाती है। पर संग्रह है। क्योंकि मगध जनपद उस समय काफी लेखों में भी बहुत से लेख प्राकृत भाषा में पंक्तियां और गुटकों की भी पूरी सूची बनानी प्रभावशाली रहा है और उसकी राजधानी उत्कीर्ण मिलते हैं। इससे प्राकृत भाषा के कई चाहिए, जिससे प्रसिद्ध रचनाओं के अतिरिक्त नालन्दा में भगवान महावीर ने चौदह चौमासे रूपों और विकास की अच्छी जानकारी मिल अप्रकाशित एवं अज्ञात रचनाएं कौन-सी है? किये। उसके आसपास के प्रदेश में भी उनके जाती है। यद्यपि प्राकृत में साहित्यरचना की इसका ठीक से पता चल सके। कर पानास हुए। इसालए मागधा भाषा का परम्परा जसा जना म रहा, वसा अन्य किसा प्राकृत भाषा का स्तात्र-साहित्य भा प्रधानता स्वाभाविक ही है। पर मगध जनपद धर्म सम्प्रदाय या समाज में नहीं रही, पर जैनेत्तर उल्लेखनीय है, अतः प्रकरणों, कुलकों, स्तोत्रों, में भी अन्य प्रान्तों के लोग आते-जाते रहते थे विद्वानों ने भी प्राकृत भाषा के व्याकरण बनाये सुभाषित पद्यों के स्वतंत्र संग्रह ग्रंथ प्रकाशित और बस गये थे तथा भगवान् महावीर भी अन्य हैं और कुछ काव्यादि रचनाएं भी उनकी होने चाहिए। मैंने जैन कुलकों की एक सूची प्रदेशों में पधारे थे अत: उनकी वाणी सभी मिलती है। इससे सिद्ध होता है कि संस्कृत का अपने लेख में प्रकाशित की थी, उसमें लोग समझ सकें, इस कारण मिली-जुली होने प्रभाव बढ जाने पर भी प्राकृत सर्वथा उपेक्षित शताधिक कुलकों की सूची दी गई थी। से उसको 'अर्धमागधी' कहा गया है। आगे नहीं हुई और जैनेत्तर लेखक भी इसे अपनाते प्राकृत जैन साहित्य को कई भेदों में विभक्त चलकर जैनधर्म का प्रचार पश्चिम और दक्षिण रहे। किया जा सकता है। जैसे - आगमिका, अंग भगवान महावीर जयंती स्मरणिका २००९ । ५५

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