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जैन धर्म
अहिंसा- अर्थात् जीव, वनस्पती और सम्यक् चरित्र (सही आचार)। ये भागवत के एवं शौरसेनी (मथुरा के आसपास की भाषा) जड वस्तुओं, सभी से प्रति कर्म, वचन और भक्तिमार्ग, वेदांतिन के ज्ञानमार्ग और में अपने उपदेश दिए। इनमें जैन साहित्य का मन से अहिंसा का भाव रखना। यह जैनियों मीमांसाकों के कर्ममार्ग का स्थान ले लेते हैं। सृजन हुआ। इससे भारत की अपभ्रंश भाषाओं का मूल मंत्र है। महावीर ने कहा, 'सजीव- भक्ति, ज्ञान तथा कर्म को अकेले महत्व न के साहित्यिक विकास में अभूतपूर्व योगदान अजीव किसी को पीडा पहुंचाने के अतिरिक्त देते हुए जैन मत का आग्रह है इन तीनों का मिला। जैनियों द्वारा भारत की स्थापत्य कला काम-भोगों में आसक्ति भी हिंसा है, इसलिए एक साथ व्यक्ति के अंदर उदय, जिससे के विकास के उदाहरण आज सारे देश में फैले सच्ची अहिंसा क्रोध, राग-द्वेष आदि विकारों सांसरिक प्रपंच ते मुक्ति प्राप्त हो। इसकी हैं। भारत की अधिकांश आधुनिक भाषाएं पर विजय, इंद्रियदमन और समस्त कुवृत्तियों तुलना दवा की आरोग्य करने की प्रक्रिया से उस समय की देन हैं और आज जैन मत संबंधी को त्यागने में है।'
दी जाती है; दवा पर विश्वास चाहिए तथा बहुत सी जानकारी तमिल ग्रंथों में मिलती है। द्वितीय, कर्म का सिद्धान्त, जिसे सर्वोपरि उसके उपयोग करने की विधि का ज्ञान और माना। मनुष्य अपने भाग्य का विधाता है, उसे लेने का कर्म भी चाहिए। क्योंकि अच्छे-बुरे कर्मों का फल अवश्य महावीर ने गणतंत्र पद्धति, जो इस मिलता है। सत्कर्मों द्वारा मनुष्य अपने विकास कालखंड में भारतीय सामाजिक एवं के चरमोत्कर्ष को पहुंच सकता है और यही राजनीतिक जीवन का सर्वत्र आधार थी, ईश्वर है। इस प्रकार सब भेदभावों को मिटा, अपनाकर जैन चैत्यविहारों (जैन मठों) का मानव के लिए निग्रंथ राग-द्वेषरहित होने को गठन किया। सर्वसाधारण जैन मतावलंबियों
- चिराग जैन मोक्ष (सृष्टि के प्रपंच से मुक्ति) का मार्ग और जैन मुनियों के लिए अलग-अलग बताया। व्यवहार नियम निर्धारित किए तथा जैन मत
राष्ट्र के निमित्त बलिदान कैसे करते हैं जैन दर्शन का तीसरा आधार को एक सुदृढ नींव पर खडा किया।
भामाशाह वाली वो कहानी मत भूलना 'अनेकांतवाद' है। इसे अहिंसा का व्यापक महावीर की देशना (उपदेश) से जैन मत
आस्था के बल पे जो कर्मों से जीत गई रूप कह सकते हैं। यह वैचारिक सह-अस्तित्व बडा व्यापक बना। उसे समय-समय पर
महासती मैना जैसी रानी मत भूलना की घोषणा है। एक ही बात किसी दृष्टिकोण राजाश्रय भी प्राप्त हुआ। मगध के राजा ।
सत्य के लिए जिन्होंने प्राण तक त्याग दिए से नहीं है- इसे 'स्याद्वाद' कहते हैं। यह 'ही' बिंबिसार ने जैन मत स्वीकार किया। चंद्रगुप्त
अकलंक जैसे महादानी मत भूलना ठीक है, इस आग्रह से विवाद खडे होते हैं। मौर्य के काल में मगध में भयंकर अकाल
राजुल ने जहाँ धोई मेहंदी सुहाग वाली यह भी' ठीक है, इससे विवाद समाप्त होते ___ पडा। उसके बाद पाटलिपुत्र में जैन आगमों
गिरनार का वो लाल पानी मत भूलना हैं। यह सच्चा, किसी को पीडा न पहुंचाने का (मान्य पाठ) की प्रथम बांचना हुई। कहा जाता
जियो और जीने दो की बात करते हैं हम मार्ग है। है कि चंद्रगुप्त ने जैन दीक्षा ली और दक्षिण
कहीं और ऐसा उपदेश नहीं मिलता स्पष्ट रीति से जैन मत में साम्य (समता) के जैन तीर्थ श्रवणबेलगोला (जहां अब संसार
मृत्यु के क्षणों को भी महोत्सव सा मानते हैं भाव प्रतिष्ठित हुआ। अपने चरित्र तथा व्यवहार की सबसे बड़ी बाहुबली की प्रतिमा स्थापित
धरती पे ऐसा परिवेश नहीं मिलता द्वारा जीवन में जो असमानता है उसे दूर करना हुई) में देह-त्याग किया। सम्राट अशोक के
सारा सुख वैभव जो जीत के भी त्याग जाए जैन मत का 'संवर' (मनोनिग्रह) है। भारतीय पौत्र संप्रत्ति ने भी जैन दीक्षा ली।
दुसरा तो कोई गोमटेश नहीं मिलता दर्शन का वह पक्ष लेकर जिसकी उस समय कलिंग (उत्कल) के राजा खारवेल ने तप-त्याग से यहाँ परमपद मिलते हैं आवश्यकता थी, यह मत बढा। यह दृष्टिकोण जैन मत अपनाया। राज्य में ऋषभदेव की
हाथी-घोडेवालों को प्रवेश नहीं मिलता वही है जो उपनिषदों के 'ब्रम्हन' की कल्पना प्रतिमा तथा जैन साधुओं के लिए गुफा
पंथ है अनेक जिनमत में भले ही पर है, या उससे जनित होती है। ऐसा आचरण, खुदवाई। मथुरा, गिरिनार (गुजरात), पैठन
मोक्षमार्ग वाला सुविचार बस एक है व्यवहार एवं दार्शनिक विचार जो समता की (महाराष्ट्र), आबू (राजस्थान) जैनियों के केंद्र
सेंकडों हैं वाद-औ-विवाद फिर भी मगर वृत्ति उत्पन्न करे उसे ही जैन मत में 'ब्रम्हचर्य' बने, जहां अत्यंत सुंदर मंदिर और भवन निर्मित
अहिंसा पे सबका विचार बस एक है कहा गया। श्रमण', जिसमें समानता मूर्तिमंत हुए।
मान्यताएं सबकी भले ही हों अनेक किंतु हुई हो, ही (वैदिक) 'ब्राम्हण' है। इसी से जैन जैनियों ने उस समय की अपभ्रंश पाँच पद वाला नवकार बस एक है मत का मोक्षमार्ग रत्न-त्रय पर आधारित है- भाषाओं में अर्द्ध-मागधी (प्राकृत का यह
कैसे नर्कों से निर्वाण पहुँचेगा जीव सम्यक् दर्शन (सही श्रद्धा), सम्यक् ज्ञान तथा रूप, जो पटना से मथुरा तक प्रचलित था)
पूरे जिन-आगम का सार बस एक है.
४६ । भगवान महावीर जयंती स्मरणिका २००९