Book Title: Arhat Vachan 2011 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 19
________________ णिच्चेलपाणिपत्तं......आदि की टीका में श्री श्रुतसागर सूरि ने स्पष्ट कहा है कि सेसा य अमग्गया सव्वे-शेषा मृगचर्म-वल्कल-कर्पासपट्टकूल-रोमवस्त्र-तट्ट-गोणीतृण-प्रावरणादिसर्वे, रक्तवस्त्रादि पीताम्बरादयश्च विश्वे अमार्गाः संसारपर्यटनहेतुत्वान्मोक्षमार्गा न भवन्तीति भव्यजनैतिव्यम् । इसका हिन्दी अनुवाद करते हुए पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने लिखा है “इसके सिवाय (निर्ग्रन्थ मुनिवेष के अतिरिक्त) मृगचर्म, वृक्षों के वल्कल, कपास, रेशम, रोम से बने वस्त्र, टाट तथा तृण आदि के आवरण को धारण करने वाले सभी साधु तथा लालवस्त्र, पीले वस्त्र को धारण करने वाले सभी लोग अमार्ग हैं, संसार परिभ्रमण के हेतु होने से ये मोक्षमार्ग नहीं है, ऐसा भव्यजीवों को जानना चाहिए।" यह उपर्युक्त कथन दिगम्बर जैन साधुओं के सिवाय अन्य मतावलम्बी साधुओं की अपेक्षा है, किन्तु आर्यिकाओं अथवा ऐलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिकाओं पर कदापि घटित नहीं होता है, क्योंकि दिगम्बर मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक-क्षुल्लिका के वेष तो जिनशासन के सर्वमान्य अनादि और प्राकृतिक पद हैं उन्हें किसी व्यक्ति विशेष ने स्थापित नहीं किया है। मेरा विद्वान् महानुभावों से कहना है कि क्या सूत्र पाहुड़ की गाथा आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक-क्षुल्लिका पर घटित करके आप इन्हें अमार्गी-जिनमार्ग से बहिर्भूत सिद्ध करना चाहेंगे ? क्योंकि आर्यिकाएं लज्जा-शील आदि गुणस्वरूप श्वेतसाड़ी धारण करती हैं, ऐलक गेरुए या सफेद रंग की लंगोट पहनते हैं, क्षुल्लकगण गेरुए या सफेद रंग की लंगोट और दुपट्टा ये दो वस्त्र ग्रहण करते हैं तथा क्षुल्लिका सफेद धोती और दुपट्टा ये दो वस्त्र उपयोग करती हैं। यह जिनशासन कथित मार्ग के अनुसार प्रवृत्ति होती है अतः ये कभी अमार्ग-उन्मार्ग नहीं कहे जा सकते हैं। यहाँ यह भी विद्वज्जन विदित सत्य ज्ञातव्य है कि आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव ने ये दर्शन पाहुड़, चारित्रपाहुड़, सूत्रपाहुड़, बोधपाहुड़ आदि रूप अष्टपाहुड़ों को अनादिनिधन दिगम्बर जिनशासन से निर्गत नूतन पन्थ (जैनाभास) के विरोध में लिखा है जिसे टीकाकार श्री श्रुतसागर सूरि ने जगह-जगह अपनी टीका में स्पष्ट किया है अतः उनके वाक्यों को अधूरे रूप में अथवा तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करके अपने चतुर्विध संघ की मर्यादा और पवित्रता को भंग नहीं होने देना चाहिए। nu jk Ádj.k gS fd Be"{kekxl es Áfke fyka ftuegek VinxEcj egy f}rh; MRÑ"V Jkod vg rhl jk fyka vkf; Ekva dk gøp इस संबंध में श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने दर्शन पाहुड़ में कहा है ,Ddaft.KLI : 0 oh; a mfDdí i ko; k.kar vojfl;k.k rb; pmRFka iqk fYkax nd .ka .kfRFKAA18AA इस गाथा में तीसरा लिंग आर्यिकाओं का बताया है और कहा है कि चौथा लिंग जिनशासन में नहीं है। इससे आचार्यदेव का अभिप्राय यहाँ आर्यिकाओं को क्षुल्लक से निम्न श्रेणी में रखने का कदापि नही है। जैसा कि इस गाथा की हिन्दी टीका में पं. पन्नालाल जी ने स्पष्ट किया है "सकल और विकल के भेद से चारित्र के दो भेद हैं। इनमें से सकल चारित्र मुनियों के होता है। उनका लिंग अर्थात् वेष नग्न दिगम्बर मुद्रा है। परिग्रहत्याग महाव्रत के धारक होने से उनके शरीर पर एक सूत भी नहीं रह सकता है। विकल चारित्र के धारकों के दर्शनिक 1, व्रतिक 2, सामायिकी 3, प्रोषधोपवासी 4, सचित्तत्यागी 5, रात्रिभुक्तिविरत 6, ब्रह्मचारी 7, आरंभविरत 8, परिग्रहविरत 9, अनुमतिविरत 10, और उद्दिष्टविरत 11, ये ग्यारह भेद होते हैं। इनमें से प्रारंभ के 6 श्रावक जघन्य श्रावक, उनके पश्चात् तीन अर्हत् वचन, 23 (3), 2011

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