Book Title: Arhat Vachan 2011 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 78
________________ अर्हत वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर टिप्पणी - 1 जैन धर्म दर्शन : जीवन जीने की कला - उषारानी शर्मा * धर्म और दर्शन मानव जीवन के लिए आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य भी हैं | धर्म का आधार मुख्य रूप से विश्वास, भक्ति, श्रद्धा एवं आस्था है । जब मानव चिंतन सागर में निमग्न होता है, तब दर्शन का और जब चिन्तन का अपने जीवन में उपयोग करता है, तब धर्म का प्रादुर्भाव होता है। धर्म और दर्शन परस्पर सापेक्ष हैं। एक दूसरे के पूरक हैं। मानव जीवन की विविध समस्याओं हेतु धर्म और दर्शन का जन्म हुआ है। चिंतकों ने धर्म में बुद्धि, भावना और क्रिया ये तीन तत्त्व माने हैं। बुद्धि से ज्ञान, भावना से श्रद्धा और क्रिया का तात्पर्य आचार से है। धर्म, दर्शन का अंग है। धर्म स्वयं अनुभूत सामग्री है जिसमें धर्म के संबंध में विचार नहीं किया जाता बल्कि व्रत, प्रार्थना आदि व्यापार रहते हैं। धर्म किसी मूल्यमय अस्तित्व के प्रति आस्था तथा निष्ठामय जीवनयापन को भी कहा जा सकता है । अतः धर्म से दर्शन को व्यापक समझा जाता है। धर्म, दर्शन में बुद्धि तथा तर्क को ही धर्म संबंधी सत्यता सिद्ध करने का आधार माना जाता है । दर्शन वह शास्त्र है जिसमें तर्क बुद्धि को ही ज्ञान प्राप्ति का एक मात्र विश्वसनीय साधन माना जाता है। इसमें धर्म का संबंध आचार से है और दर्शन का संबंध विचार से है। जैन शब्द की व्युत्पत्ति 'जिन' से मानी गई है। इसका अर्थ होता है विजेता अर्थात् वे व्यक्ति जिन्होंने अपने जीवन में मन एवं कामनाओं पर विजय प्राप्त करके सदा के लिए आवागमन के चक्र से मुक्ति प्राप्त कर ली है। इन्हीं जिनों के उपदेशों का पालन करने वालों को जैन कहा जाने लगा तथा उनके सम्प्रदाय के सिद्धांत जैन दर्शन अथवा जैन धर्म के नाम से विख्यात हुए। जैन धर्म तथा दर्शन अपनी विशिष्ट विशेषताओं के कारण संसार के विचारकों के लिए आज भी आकर्षण का केन्द्र बिन्दु हैं। प्रत्येक धर्म के दो अंग होते है । विचार एवं आचार । जैन धर्म के विचारों का मूल है स्याद्वाद और आचार का मूल है अहिंसा । जैन दर्शन मुख्य रूप से आचार और विचार से उत्पन्न होता है । आचार में अहिंसा एवं विचार में अनेकान्तवाद का प्रतिनिधित्व करने वाली जैन परम्परा धर्म और दर्शन को अपने में संजोए हुए है । जैन धर्म सत्य को सत्य, असत्य को असत्य मानता है। अन्य के द्वारा कहे हुए सत्य को भी यह उदार हृदय से स्वीकार करता है। यह प्राणी मात्र का प्रतिनिधित्व करता है। इसी कारण यह विश्व धर्म माना जाता है। जैन धर्म के तीर्थकर अपने से पहले हुए तीर्थंकरों के सिद्धांतों का ही निरूपण करते हैं । इस धर्म के सिद्धांतों में परस्पर विरोध नहीं है। अहिंसा की दिव्य ज्योति विचार के क्षेत्र में अनेकान्त के रूप में प्रकट होती है तो वचन व्यवहार के क्षेत्र में स्याद्वाद के रूप में जगमगाती है और समाज शांति के लिए अपरिग्रह के रूप में स्थिर आधार बनाती है। धर्म आत्मा के सदगुणों के विकास का नाम है। सदगुणों के विकास अर्थात सदाचार धारण करने में किसी प्रकार का बंधन स्वीकार्य नहीं हो सकता । राजनीति व्यवहार के लिए कैसी भी चले किन्तु धर्म की शीतल छाया प्रत्येक के लिए समान भाव से सुलभ हो यही तीर्थंकरों की अहिंसा और अर्हत् वचन, 23 (3), 2011 79

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