Book Title: Arhat Vachan 2011 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 84
________________ अपनाते हो उसे ही हम जिनाज्ञा द्वारा किया कार्य मानते हैं, अतः आपसे नतमस्तक होकर निवेदन करते हैं कि कृपया आप इस तरीके के राजनीतिक व व्यवसायिक प्रपंचों में पड़कर अपने निर्मल चारित्र को दूषित मत करिये । अपनी आत्मा की ओर लक्ष्य रखकर हमारे प्रेरणादायी बने । हम अज्ञानी आपकी क्रियाओं को शासन सम्मत समझकर कहीं जिनाज्ञा विरुद्ध काम न कर बैठे इसका ध्यान आपको अपने आचरणों में रखना होगा। हमारी आपसे निम्नलिखित अपेक्षाएं व विनती है - 1. किसी भी प्रकार के आयोजनों से दूर रहें। 2. किसी भी प्रकार के प्रोजेक्ट चाहे वो मंदिर, धर्मशाला, हॉस्पीटल, स्कूल या तीर्थ के हो, का अपने द्वारा क्रियान्वयन न करें । 3. किसी संस्था में ट्रस्टी, कार्यवाहक, संचालक जैसा कोई भी पद न ले | 4. बिहार में अपने साथ रसोड़ा रखना व वाहनादि रखने से परहेज करें। 5. किसी भी प्रकार के डोरों, धागों या चमत्कार के प्रायोजन न करे । होम हवन आदि मिथ्यात्ववर्धक विधि में न पड़े। 6. फोन, मोबाइल, लेप्टॉप एवं कम्प्यूटर्स का उपयोग न करें कोई भी इलेक्ट्रिकल या इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का उपयोग न करें। 7. माईक, पंखे, कूलर एवं एयरकंडीशन के उपयोग से परहेज करें। 8. आवश्यक सारी कियाओं को सार्वजनिक रूप से करने का ध्येय रखे । 9. सुगुरु, गच्छवास की मर्यादाओं का भलीभांति पालन करें । उपरोक्त विनती करने का प्रमुख कारण यह है कि जो आचरण कंचन, कामिनी व हिंसा आदि का प्रसंग कराने वाला है, जिसमें दोषों की सम्भावना, पराधीनता और आज्ञा भंग का भय उपस्थित है वह मार्ग शास्त्र सम्मत नहीं है । इस सिद्धांत के अनुसार मोटर, रेल, हवाई जहाज, मोबाइल आदि फोन का उपयोग, होमादि करना, डोरे धागे करने, माईक टेप-वीडियो-ओडिओ कैसेट, सीड़ियों, विडियों का उपयोग, कार्यक्रमों का आयोजन करना, षट्जीवनिकाय की विराधना, आर्त्त - रौद्र ध्यान और पराधीनता आदि का दोष लगना स्वाभाविक है व संयम की रक्षा कठिन हो जाती है। खुद के संयम धर्म का नाश करके दूसरों को सुधारना अनुचित है। जो स्वयं पतित व शिथिलाचार में पड़ेगा वह दूसरों का सुधार नहीं पायेगा । 'आत्मार्थे सर्व त्यजेत' अनाचार पोषक आचार-विचार व प्ररूपणा से आत्म धर्म को बाधा पहुंचती है और आत्मधर्म की रक्षा के लिए यह अत्यंत जरूरी है। अपनी आत्मा के उत्थान के लिए सबसे पहले तात्विक अर्थ में स्वार्थी बनना अत्यावश्यक है। स्वार्थ में ही परमार्थ निहित है। श्रावक वर्ग से निवेदन - आवक भाईयों से इतना ही निवेदन है कि उपरोक्त प्रकार के कार्यों का निषेध करने से हमें दोहरा लाभ होगा एक तो हम साधु के शुद्ध चारित्र पालन के निमित्त बनेंगे व उनकी आत्मा के उत्थान में सहायक बनेंगे व हम भी शुद्ध चारित्रवान से प्रेरणा लेकर अपनी आत्मा का भी उत्थान कर सकेंगे । अतः निम्न कार्यों का निषेध करें 1. कोई भी कार्यक्रम यदि स्वयं साधु साध्वी द्वारा प्रायोजित हो तो उसमें भाग न ले । अर्हत् वचन, 23 (3), 2011 85

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