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इनके व्यक्तित्व के अनेक पहलू मन को मोहते हैं । एक साधारण परिस्थिति में उत्पन्न होने वाला व्यक्तित्व इतना असाधारण कैसे बन जाता है। हम लोग जो इस सिद्धांत को मानते हैं कि व्यक्ति अपने उत्कर्ष और अपकर्ष का, अपने बंध और मोक्ष का, स्वयं कर्ता है- इसके लिये भी पं. पन्नालाल जी का जीवन लौकिक क्षेत्र में और आध्यात्मिक ज्ञान के क्षेत्र में उस सिद्धांत की सत्यता की कसौटी रहा हैं। वैसे तो पंडित जी ने 1931 में ही साहित्यिक और सामाजिक क्षेत्र में प्रवेश कर लिया था, किन्तु इधर के कुछ वर्षों में द्रुत गति से दोनों दिशाओं में बढ़ने को अपरिमित शक्ति और शौर्य का परिचय दिया।
__पंडित जी को हम सरस्वती-साधक कह सकते हैं क्योंकि उन्होंने समूचे जीवन को सरस्वती आराधना में लगाया है। यह एक विचित्र संयोग है कि पंडित जी के व्यक्तित्व में कुशल लेखक, प्रभावी प्रवक्ता तथा विवादरहित विद्वत्ता का संगम हुआ था। पंडित जी अपनी अप्रतिम प्रतिभा और अनुपम वचन माधुरी द्वारा इतने तन्मय हो जाते थे कि अन्य कार्यों के सुध-बुध ही नहीं रहती थीं। वे बहुत शांत व स्मित थे, किन्तु अपने बुद्धि कौशल से कठिनतम परिस्थितियों को संभालने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। पंडित जी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी थे, साथ ही आचार में उनकी गहरी निष्ठा थी। यही कारण है कि वे मात्र उपदेशकों की अपेक्षा आचरण प्रधान व्यक्तियों के अधिक निकट रहे । उनकी चर्या एक व्रती जैसी थी और घर में रहकर भी वे वानप्रस्थी रहे । प्रमाण, प्रमेय, गुण, द्रव्य आदि गहन विषयों का सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचन करना उनकी विशेषता थी। पंडित जी ने अपने जीवन में सामंजस्य स्थापित किया था। यही कारण है कि वे सामाजिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में पक्ष और विपक्ष से परे रहे।
पंडित जी ने अपने जीवन में जितनी साहित्य सेवा की है और उनकी सेवाओं का जितना सम्मान सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर हुआ है, उनकी क्षमता का कोई व्यक्ति विगत चार दशाब्दियों में दृष्टिगोचर नहीं होता है।
जीवन के नवम दशक के उत्तरार्द्ध में भी माननीय डॉ. पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य वार्धक्य एवं तज्जन्य शिथिलता को चुनौती देते हुए अंतिम समय तक अहर्निश चिन्तन-मनन एवं सृजन में अनवरत रूप से प्रवृत्त रहे हैं । आपकी सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक एवं दार्शनिक सेवाओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने हेतु सन् 1990 में आपका अखिल भारतीय अभिनन्दन भव्य समारोह पूर्वक सम्पन्न हुआ, इस अवसर पर हमारे प्रधान सम्पादकत्व में 862 पृष्ठों का बृहत्काय अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित होकर माननीय पं. साहित्याचार्य जी को समर्पित किया गया और हमारे ही निर्देशन में उनकी साहित्य साधना पर पी,एच.डी. उपाधि का शोध कार्य हुआ।
माननीय डॉ. पं. पन्नालाल जी स्वयं एक संस्था रहे हैं। हमारी कामना है कि उनके शिष्य अपनी ज्ञानसाधना के द्वारा पूज्य संत गणेश प्रसाद जी वर्णी महाराज के वंशवृक्ष की अभिवृद्धि एवं ज्ञान पिपासुओं के लिए पाथेय प्रस्तुत करते रहे। प्राप्तः 3 मार्च 2011
निदेशक- संस्कृत, प्राकृत एवं जैन विद्या अनुसंधान केंद्र
28, सरोज सदन, सरस्वती कॉलोनी, दमोह (म.प्र.)
अर्हत् वचन, 23 (3), 2011