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अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
वर्ष - 23, अंक - 3, जुलाई-सितम्बर - 2011, 87-88
जन्म शताब्दी समारोह वर्ष :2011 पर विशेष विद्वद्वर्य डॉ. पन्नालाल जी साहित्याचार्य
- भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु'*
जिस तरह हिन्दी जगत में बाबू गुलाबराय एम.ए. तथा श्यामसुन्दरदास बी.ए. उपाधियों के साथ जाने जाते हैं उसी तरह प्राच्य विद्या-जगत् डॉ. (पं.) पन्नालाल जी जैन को 'साहित्याचार्य' की उपाधि के साथ जानता रहा है। यदि भूल से वह उपाधि नाम के साथ न लगी हो तो एक तरह की अपूर्णता का अहसास होता था और हम किसी और व्यक्ति के भ्रम में पड़ जाते थे।
पंडित पन्नालाल जी संस्कृत भाषा के न केवल अधिकारी विद्वान् माने जाते थे, अपितु इसी भाषा के सुकवि और अच्छे लेखक भी। अच्छे चिंतक और विचारक भी, सफल टीकाकार और सम्पादक भी, आदर्श शिक्षक और व्यवस्थापक भी कहे जाते थे। ऐसे अद्भुत व्यक्तित्व वाले व्यक्ति का बाल्यकाल कैसा
बीता होगा इसकी हम कल्पना नहीं कर सकते हैं। 'होनहार विरवान के होत चीकने पाता' की कहावत पंडित जी के जीवन में पूर्णतः चरितार्थ होती दिखाई देती थी।
आज से 100 वर्ष पहले शिक्षा के साधन अत्यन्त सीमित थे । पंडित जी ने सागर की जैन संस्कृत पाठशाला में अध्ययन प्रारंभ किया। प्रतिभा किसी भी परिवेश और परिस्थिति में प्रकट हुए बिना नहीं रहती, ठीक उसी तरह जिस तरह बीजांकुर कठिन धरती को चीरकर अपनी कोमलता और मनोहरता को साथ लिये आ निकलते हैं। पंडित जी ने संस्कृत भाषा और उसके साहित्य, जैन दर्शन और उसके सिद्धांत को भली भांति हृदयंगम किया । वाराणसी और सागर ये दो स्थान ही पंडित जी के विद्यार्जन के प्रमुख केन्द्र रहे हैं।
प्रातः स्मरणीय पूज्य संत गणेशप्रसाद जी वर्णी न्यायाचार्य की प्रेरणा से 1931 में सागर के श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय में साहित्याध्यपक के रूप में कार्य आरम्भ किया जो अनवरत रूप से 1972 तक चलता रहा। बाद में आप इसी महाविद्यालय के 1972-83 तक प्राचार्य रहे । सन् 1986 से जीवन पर्यंत आप वर्णी गुरुकुल, जबलपुर को मानद निदेशक के रूप में अपनी सेवाएं देते रहे हैं।
बहुचर्चित पंडित पन्नालाल जी के जीवन और उनकी उपलब्धियों के बारे में जितना ही अधिक विचार किया जाता है, आश्चर्य-चकित और श्रद्धानवत होने को विवश होना पड़ता है। उनके व्यक्तित्व के ऐसे अनेक आकर्षक पक्ष हैं और उनके कार्य की ऐसी अनेक दिशाएं हैं जो निःसंदेह डॉ. पन्नालाल जी साहित्याचार्य को जैन समाज की जागृति और तत्त्वज्ञान के प्रचार-प्रसार के युग का अगुआ सिद्ध करते हैं। अर्हत् वचन, 23 (3), 2011