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जिनाज्ञा के विरुद्ध है। कोई श्रमण वेश में सज्ज व्यक्ति अपनी मर्यादा छोड़कर यदि ऐसी प्रेरणा दे रहा हो तो प्रबुद्ध श्रावक समाज को इसका पुरजोर विरोध करना चाहिए व सभी उपायों द्वारा ऐसी कुप्रवृत्तियों को रोकना चाहिए।
साधुधर्म कहता है कि साधु को राजनीति व हिंसक कार्यों में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए और अपने पाँच महाव्रतों के पालन में रुकावट बने वे कार्य उन्हें नहीं करना चाहिए, पर आज के कुछ साधुगण हिंसायुक्त कारखानें व व्यवसाय बढ़े इसके लिए जैन एकता के नाम पर व्यवसायिक संगठन (संस्था) का समर्थन ही नहीं, पर उसका प्रायोजन भी करते हैं। क्रिकेट जैसे छः-जीव निकाय के कत्लखाने समान खेलों का प्रायोजन करके उसमें रात को भी मुनिवेश में निश्रा देकर टी.वी. पर साक्षात्कार देकर उसे सही ठहराते हैं । जैन साधु व्यवसाय व कारखानें बढ़े उसके प्रायोजन तो बहुत दूर पर मंदिर, धर्मशाला, उपधान तप, छः रीपालित संघ के भी प्रायोजक नहीं हो सकते हैं यह सब उनकी संयम जीवन की आचरणा के विरुद्ध है। कहां वैराग्य की उत्पत्ति व मोक्षमार्गी बनाने की प्रेरणा व कहां कारखानें व व्यवसाय बढ़ाने की प्रेरणा देना। इस प्रेरणा से संसार असार न लगकर और प्यारा लगे व पापवृत्ति में रहकर जीव भव बढ़ाने के कार्य करें। मंदिर, धर्मशाला उपद्यान व संघों के लिए भी सिर्फ ये उपदेश दे सकते हैं पर उनका आयोजन नहीं कर सकते, पर आज शासन के कार्य, जैन एकता व शासन प्रभावना के नाम पर स्वयं ही इन सबका वैभवी आयोजन करते हैं व स्वयं मोबाइलों द्वारा फोन करके, स्वयं मृषावादका सेवन कर अन्यों को संघपति बनाकर स्वयं इन आयोजनों-प्रोजेक्टों को क्रियान्वित करने का कार्य करते है जो श्रमणों की उत्तम मर्यादाओं का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन होने से अत्यंत दुःखदायी है । शक्तिशाली श्रावक इसकी उपेक्षा करे तो वह भी पाप का भागीदार है।
कभी-कभी और यह लिखने से पहले हमें भी यह भ्रम था कि साधु के बारे में व उनकी आचरणा के बारे में भी कुछ कहने से मध्यस्थ रहकर मौन रहना हितावह है पर सूरि पुरंदर पूज्य आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी महाराज द्वारा रचित 'सम्बोध प्रकरण' ग्रंथ जिसमें 171 गाथाओं में 'साधु में कौन वंदनीय व कौन अवंदनीय? की जो व्याख्या की है व इस ग्रंथ के गाथा नं. 128 'आणाभंगं दह्र मज्झत्थनु ठयंति जे तुसीणा । अविहिअनुमोयणाए तेसि पि य होई वयलोवो' इसका अर्थ करते लिखा है कि आज्ञा का भंग होता देखकर भी जो मध्यस्थ होकर मौन रहते हैं, अविधि के अनुमोदक होने के कारण उनके व्रत का भी लोप होता है । यानि कि चाहे वो साधु हो या साध्वी, श्रावक हो या श्राविका, जो जिनाज्ञा का भंग होता स्वयं देख समझ रहे हैं, फिर भी अनदेखा करके आँख मूंद लेते है तो वे आज्ञा भंग के अनुमोदक हैं और वह आज्ञाभंगादि पाप बढ़ने और फैलने का अवसर देकर धर्म क्षति करने वाला हैं व ऐसा व्यक्ति अपने व्रतों के प्रति उदासीन कहलाता है । यह पढ़कर मुझे यह लिखने व अपील करने का मन बना है।
साधुवर्ग से वंदनीय निवेदन
आपने इस काल का सबसे सुन्दर व विरला चारित्रधर्म अंगीकार किया है। कितने बड़े पुण्योदय से आपने चारित्र पाया है । आप हमारे से कितने ज्यादा भाग्यशाली हो । आप ज्ञानी हो व हमारे मार्गदर्शक हो । आप जिन शासन के रक्षक हो व हमारे मार्गदर्शी हो । यदि आप संयम मर्यादा में रहोगे तो हमें भी संयमी बनने में आप पथ प्रदर्शक बनोगे। आप ही हमें वीतराग के द्वारा प्ररूपित धर्म को सही मायने में दिखा सकते हो । आप हम सबके प्रेरणादायी हो। आप जो करते हो व जिस तरीके को
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अर्हत् वचन, 23 (3), 2011