Book Title: Arhat Vachan 2011 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 79
________________ समता का लक्ष्य था । इसी लक्ष्य निष्ठा ने धर्म के नाम पर किए जाने वाले पशु यज्ञों को निरर्थक सिद्ध कर दिया था । अहिंसा का झरना हृदय से एक बार जब झरता है तो वह मनुष्यों तक ही नहीं, प्राणी मात्र के संरक्षण और पोषण तक जा पहुंचता है। जैन धर्म में हिंसा को दो भागों में विभाजित कर दिया गया है द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा । जब किसी को मारने, सताने अथवा असावधानता का भाव न होने पर भी दूसरे का घात हो जाता है तब उसे द्रव्य हिंसा कहते हैं और जब किसी को मारने या सताने अथवा असावधानता का भाव होता है तब उसे भाव हिंसा कहते हैं। वास्तव में भाव हिंसा ही हिंसा है । द्रव्य हिंसा को तो केवल इसलिए हिंसा कहा है कि उसका भाव हिंसा के साथ संबंध है किंतु द्रव्य हिंसा के होने पर भाव हिंसा अनिवार्य नहीं है। जिस व्यक्ति द्वारा किसी का घात हो जाता है या किसी को कष्ट पहुंचता है उस व्यक्ति की मानसिकता ही ऐसी थी, ऐसा एकान्तरूप से नहीं कहा जा सकता । अतः जहां कर्त्ता के भावों में हिंसा है वहीं हिंसा है, चाहे उसके द्वारा कोई मारा जाए या न मारा जाए। जहां कर्त्ता के भावों में हिंसा नहीं है, वहां हिंसा नहीं, भले ही उसके निमित्त से किसी की जान चली जाए। यदि द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा को इस प्रकार पृथक् न किया गया होता तो कोई भी अहिंसक न बन सकता और यह आशंका सदैव बनी रहती है कि - जले जंतु स्थले जन्तुराकाशे जन्तुरेव च । जन्तुमालाकुले लोके कथं भिक्षुरहिंसकः ॥ अर्थात् जल में जंतु हैं स्थल में जन्तु हैं, आकाश में भी जंतु है। इस प्रकार जब समस्त लोक जंतुओं से व्याप्त है तो कोई मुनि कैसे अहिंसक हो सकता है। इस शंका का उत्तर इस प्रकार दिया जाता है - सूक्ष्मा न प्रतिपीड्यन्ते प्राणिनः स्थूल मूर्तयः । शक्यास्ते विवर्जयन्ते का हिंसा संयतात्मनः ॥ अर्थात् जीव दो प्रकार के होते हैं सूक्ष्म और स्थूल । जो जीव सूक्ष्म अर्थात् अदृश्य होते हैं उन्हें तो कोई पीड़ा दी ही नहीं जा सकती। स्थूल जीवों में जिनकी रक्षा की जा सकती है, उनकी की जाती है । अतः जिसने अपने को संयत कर लिया है उसे हिंसा का पाप कैसे लग सकता है । इससे स्पष्ट है कि जो मनुष्य जीव हिंसा का भाव नहीं रखता अपितु उनको बचाने का भाव रखता है व अपना प्रत्येक कार्य ऐसी सावधानी से करता है जिससे किसी को कष्ट न पहुंचे उसके द्वारा जो द्रव्य हिंसा हो जाती है उसका पाप उसको नहीं लगता । अतः जैन धर्म की हिंसा भावों पर निर्भर है इसलिए कोई भी बुद्धिमान उसे अव्यवहार्य नहीं कह सकता । अहिंसा ही एक मात्र उपाय है, जिस पर चलकर सभी मार्गों का ज्ञान हो जाता है। 80 यह संसार एक अवसर है, ऐसे अवसर को पा जाने के बाद प्रमाद नहीं करना चाहिए। दूसरे प्राणियों को अपने ही समान देखना चाहिए। किसी भी प्राणी की सभी तरह की हिंसा से दूर रहना चाहिए | अहिंसा सम्यक् चारित्र का प्रमुख उपादान है । स्थूल, सूक्ष्म, चर, अचर, किसी भी जीव की मन, वाणी या शरीर से हिंसा नहीं करनी चाहिए । अर्हत् वचन, 23 (3), 2011

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