Book Title: Arhat Vachan 2011 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 80
________________ जैन दर्शन एक वस्तु में अनंत धर्म मानन है । इन धर्मों में से व्यक्ति अपने इच्छित धर्मों का समयसमय पर कथन करता है । वस्तु के जितने धर्मों का कथन हो सकता है वे सब धर्म वस्तु के अंदर रहते हैं । व्यक्ति अपनी इच्छा से उन धर्मों का पदार्थ पर आरोप नहीं करता । अनन्त धर्मों के कारण ही वस्तु अनन्त धर्मात्मक या अनेकान्तात्मक कहीं जाती है। - अनेकांत के विषय में कहा गया है जो वस्तु सत्य स्वरूप है वह असत्यस्वरूप भी है। जो वस्तु एक है वह अनेक भी है। जो वस्तु नित्य है वह अनित्य भी है। इस प्रकार एक ही वस्तु के वस्तुत्व के कारणभूत परस्पर विरोधी धर्मयुगलों का प्रकाशन अनेकान्त है। अनेकांत दर्शन विचारों की शुद्धि करता है । वह मानवों के मस्तिष्क से दूषित दृढ़ पूर्ण विचारों को दूर कर शुद्ध एवं सत्य विचार के लिए प्रत्येक मनुष्य का आह्वान करता है । इसके अनुसार वस्तु विराट एवं अनन्त धर्मात्मक है। अपेक्षा भेद से वस्तु में अनेक विरोधी धर्म रहते है। उन अनेक धर्मों में से प्रत्येक धर्म परस्पर सापेक्ष है। वे किसी एक ही वस्तु में बिना किसी वैर भाव के प्रेमपूर्वक रहते है। विरोधी होते हुए भी उनमें परस्पर विरोध का अवसर नहीं आता । उनमें कभी झगड़ा नहीं होता । अनेकांत से अनेक धर्म समता की तरह मानव समता का ज्ञान होने ने सब झगड़ों का सदा के लिए अन्त सम्भव है । इस प्रकार जैन धर्म-दर्शन में उन्नत जीवन जीने की कला निहित है। हमें उस कला को अवश्य सीखना चाहिए । प्राप्तः 15.11.10 * व्याख्याता - संस्कृत एम. एस. जे. कॉलेज, भरतपुर (राजस्थान ) सम्पर्क : W/o श्री हरिओम गौतम दिव्य सदन, पुराने लक्ष्मण मंदिर के पीछे, भरतपुर (राज.) अर्हत् वचन, 23 (3), 2011 अर्हत् वचन सदस्यता शुल्क भारत व्यक्तिगत 150=00 वार्षिक 10 वर्षीय 1500=00 आजीवन / सहयोगी 2100=00 नोट- चेक कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर के नाम भेजें । संस्थागत 250=00 2500=00 विदेश US$20=00 US$ 200=00 US$ 300=00 81

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