Book Title: Arhat Vachan 2011 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 33
________________ सत्य के अन्वेषण की चाह ने उन्हें प्रकृति के अन्वेषण में प्रवृत्त कर दिया। वे अदृश्य की खोज में लगे। प्रकृति की खंड प्रक्रियाओं का उनके अखंड रूप में दर्शन आत्मा की स्वतंत्र सत्ता से साक्षात्कार की दिव्य अनुभूति है। इस अनुभूति के साथ उन्होंने कर्मों के दुर्जेय चक्रव्यूह की रचना भी देखी। जीव और अजीव - इन दो प्रत्यक्ष दिखने वाले तत्वों के साथ जटिल रूप में गुँथे प्रकृति के सात अदृश्य अवयवों का उन्होंने गहन संधान किया । जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष - जैन अध्यात्म विद्या और आत्मतत्व ज्ञान के आधारभूत इन नौ पदार्थों की अत्यंत युक्तिसम्मत, तलस्पर्शी और विशद व्याख्या सचमुच मानवेत्तर ज्ञान से निष्पन्न लगती है। तत्त्व का अर्थ है वह वस्तु जिसका वास्तविक अस्तित्व हो। जन्म और मृत्यु के कारण अपनी आंखों से हमें दिखे या न दिखे, मगर वे नितान्त स्वतंत्र, एकांगी और आकस्मिक घटनाएं नहीं, क्रिया और प्रतिक्रिया के एक श्रृंखलाबद्ध और व्यवस्थित क्रम की अनिवार्य परिणतियां हैं । गेंद जमीन से टकराती है और उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप ऊपर उछलती है । पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है, सेंट्रीफ्यूगल फोर्स (centrifugal force) इस क्रिया की प्रतिक्रिया है। जेट इंजन जिस क्रिया का सूत्रपात करता है, विमान का ऊपर की ओर उठना उसकी प्रतिक्रिया है । पृथ्वी के अंदर से फूट रहा ज्वालामुखी, पहाड़ की चोटी पर जम रही बर्फ, आकाश में घुमड़ते बादल और समुद्र से उठ रहा ज्वार- सब क्रिया और प्रतिक्रिया के अंतः पाश की प्रतिध्वनियां हैं । तो फिर जन्म लेने की क्रिया नितान्त स्वतंत्र कैसे हो सकती है ? सत् चिंतन और सत्कार्यों की कोई अनुगूंज क्यों नहीं होगी? हिंसा और चोरी में लिप्त व्यक्ति के दुष्कर्म यहीं समाप्त क्यों हो जाएंगे? क्यों? जैन धर्म इसी 'क्यों' के समाधान में निकले भगवान महावीर के अंतर्मन की यात्रा का वृत्त है। मनुष्य अपने चरम उत्कर्ष तक पहुंचने की क्षमता लेकर उत्पन्न होता है, पर अज्ञान और काम, क्रोध, तृष्णा, आसक्ति आदि उसके सहजात विकार उसे इस क्षमता को पहचानने नहीं देते । भगवान महावीर ने मनुष्य के मन को विमूर्च्छित करने वाले इन अवरोधों को विजित करने हेतु सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की बात कही और मनुष्य को उस क्षमता का बोध कराया। वह रत्नत्रयी जैन दर्शन का आधार स्तंभ है और संपूर्ण अध्यात्म जगत को जैन धर्म की गौरवशाली देन है। इसे सार रूप में इस तरह समझा जा सकता है - सम्यक् दर्शन - सत्य और असत्य, श्रेय और हेय एवं शाश्वत और नश्वर के बीच सही विवेचन करने की दृष्टि और जो सत्य है, श्रेय है, शाश्वत है उसमें गहन आस्था सम्यक् दर्शन है। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष- ये नौ पदार्थ (तत्त्व) सत्य के दृश्य और अदृश्य रूप हैं । इनके अस्तित्व में अविकल विश्वास के बिना गंतव्य स्पष्ट नहीं होता। आस्थारहित अस्थिर मन यथार्थ और अयथार्थ के बीच विभेद नहीं कर पाता और भटक जाता है। अतः संशयशील व्यक्ति के लिए सत्य उपगम्य नहीं। सम्यक् दर्शन मन को संशयमुक्त कर अंधकार से प्रकाश की ओर गमन की प्रक्रिया है और इसलिए अध्यात्म यात्रा का प्रथम सोपान है। सम्यक् ज्ञान - हर जीव में सहजात कुछ ज्ञान होता है । कोई जीव संज्ञाविहीन नहीं मगर सम्यक दर्शन के अभाव में ज्ञान अपूर्ण रहता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति सृष्टि के सही स्वरूप को नहीं समझ पाता। सम्यक् दर्शन से निष्पन्न ज्ञान नीर-क्षीर-विवेक-समझ और यथार्थ परक होता है। यही उत्थित संज्ञा जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान है । ज्ञान की निम्नांकित पांच श्रेणियां हैं अर्हत् वचन, 23 (3), 2011

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