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ज्ञान
मतिज्ञान इंद्रियों और बौद्धिक एवं मानसिक शक्ति के द्वारा प्राप्त ज्ञान।
श्रुतज्ञान पवित्र ग्रंथों तथा शास्त्रों के अध्ययन एवं ऋषि-मनीषियों के श्रवण से प्राप्त ज्ञान।
अवधिज्ञान पारलौकिक ज्ञान । काएक परिभाग, जिसके द्वारा मस्तिष्क और इन्द्रियों की सहायता के बिना | एक निश्चित क्षेत्र सीमा के अंदर समस्त सशरीर वस्तुओं को जाना जा सकता है। ।
मनःपर्ययज्ञान केवलज्ञान पारलौकिक ज्ञान | पूर्ण पारलौकिक ज्ञान, का एक परिभाग, जिसके द्वारा मस्तिष्क जिसके द्वारा
और इंद्रियों की मस्तिष्क और सहायता के बिना इन्द्रियों की सहायता समस्त लोक और के बिना एक
अलोक में सिमटे भूत, निश्चित क्षेत्र सीमा वर्तमान और भविष्य के अंदर समस्त के सारे पदार्थों- आकार जीवों की आत्मिक और निराकार की श्रेणियों गति और मानसिक और उनके गुणधर्म के बारे स्पंदनों को जाना जा | में जाना जा सकता है। सकता है।
सम्यक् चारित्र - हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह (पदार्थों में आसक्ति और उनका संग्रह) ये पांच आस्रव के हेतु हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और ईर्ष्या - ये छह कषाय (विकार) हैं। इन असत् प्रवृत्तियों के शमन हेतु आत्मानुशासन, इंद्रिय निग्रह एवं मन, वचन और काया द्वारा संयममय और अमलिन आचरण सम्यक् चारित्र है।
सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र परस्पर अन्योन्याश्रित और अविच्छिन्न हैं । ये तीनों धर्म के सही स्वरूप को जानने और उसकी अनुपालना के लिए पूर्व शर्त के रूप में जैन दर्शन के महत्वपूर्ण अंग हैं । धर्म क्या है - बिना सम्यक् ज्ञान के यह समझा नहीं जा सकता, ऐसा जैन दर्शन का आग्रह है और यही आग्रह जैन धर्म को विज्ञान के धरातल पर ले जाता हैं । यह अतिरंजना नहीं कि विज्ञान शब्द जिस अर्थ में आज प्रयुक्त है, वहीं आशय अगर भगवान महावीर के समय व्यक्त करता होता उनके दर्शन को संभवतः धर्म की नहीं, विज्ञान की संज्ञा मिलती।
जैन धर्म स्वयं में एक पूर्ण विज्ञान है, इस बात को कहने से पूर्व, यहां विज्ञान की परिभाषा पर भी एक दृष्टि आवश्यक है | The Random House Dictionary के अनुसार 'सूक्ष्म निरीक्षण और परीक्षण के द्वारा अर्जित भौतिक पदार्थों का संस्थित (व्यवस्थित) ज्ञान विज्ञान है। मगर यह सृष्टि तो केवल भौतिक वस्तुओं तक सीमित नहीं। द्रव्य जगत से भी अधिक महत्वपूर्ण अलग एक भाव जगत भी है । विज्ञान, जैसा कि इसकी परिभाषा कहती है, केवल द्रव्य जगत पर केंद्रित है, भाव जगत तो इसका विषय ही नहीं। यह सचमुच आश्चर्य की बात है। दूसरी ओर, जैन दर्शन केवल द्रव्य जगत का नहीं, केवल भाव जगत का भी नहीं, बल्कि दोनों के सूक्ष्मतम रूपों से साक्षात्कार करने का उपक्रम है। अध्यात्म का विषय संकुचित अर्थ में केवल भाव जगत बनता है मगर जैन दर्शन पदार्थ जगत की गवेषणा के माध्यम से भाव जगत के रहस्यों को अनावृत्त करता है और यही, विज्ञान की तरह, उसके बृहत् आकार का कारण है।
ऊपर उल्लेखित नौ पदार्थ (तत्व) प्रकृति के दृश्य और अदृश्य सब घटकों का एक पूर्ण वृत्त है - एक संपूर्ण चक्र जो सुख और दुख एवं जन्म और मृत्यु का नियामक है। इस पृष्ठभूमि के साथ इन तत्त्वों का एक रहस्यमय तादात्म्य बिल्कुल तर्कसंगत और यथार्थ लगता है। उनके स्थूल स्वरूप को संक्षेप में इस तरह समझा जा सकता है - 1. जीव - चेतनामय अविभाज्य असंख्य प्रदेशी पिंड
अर्हत् वचन, 23 (3),2011