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जब जैन चिंतन ने आकार ग्रहण करना प्रारंभ किया तो संभवतः यह पहला सत्य था, जो चिंतकों के दिमाग में अनावृत हुआ। कालांतर में जब शब्द अभिव्यक्ति प्रभावकारी हुई तो इसे उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के रूप में रेखांकित किया गया और किसी आचार्य ने इसे 'नय सिद्धांत के रूप में समझाया। इतनी सारी सभ्यताओं का पहले होना और अब नहीं होना - इसी बात का प्रमाण है कि परिवर्तन सदैव होता रहता है और इस तथ्य को तार्किक रूप में समझा जाना चाहिए। इन्हीं संदर्भो को ध्यान में रखते हुए हम भारत की सभ्यता और उसके सांस्कृतिक विकास पर ध्यान देने का प्रयास करेगें।
अर्हत् वचन, 23 (3), 2011