Book Title: Arhat Vachan 2011 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 37
________________ वर्ष - 23, अंक - 3, जुलाई-सितम्बर - 2011, 35-42 तीर्थों के पीछे क्या है? । सूरजमल बोबरा* कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर समय काल सूचक भी होता है और जो एक साथ समस्त पदार्थों को जाने वह भी समय कहलाता है। दोनों अर्थ, दोनों परिभाषायें अपने-अपने परिप्रेक्ष्य के कारण भिन्न-भिन्न संदेश देती हैं। जो गुजर चुका है उसको समझना ही तो इतिहास है। इसे समझने के लिए संदर्भ, प्रमाण और जो आज दिखाई दे रहा है उस प्रवाह का विश्लेषण यह तीनों मिलकर इतिहास की झलक देते हैं और विकास की दृष्टि से चिंतन उसे स्वरूप प्रदान करता है। विश्व की सभ्यताएं जो लुप्त हो गई हैं, उनको ढूँढने के प्रयास हुए हैं। कई पुरातात्विक स्थान हैं जो खंडहरों के रूप में हैं और धरती के गर्भ में समा गये हैं जिन्हें आधुनिकतम तकनीकी ज्ञान के सहयोग से अनावृत किया जा रहा है। एरियल फोटोग्राफी, विद्युतचुंबकीय उपकरणों का प्रयोग, पेरिस्कोप का उपयोग और इन सब का अध्ययन, वृक्षों की बनावट में छिपी Botanical सूचनाएं, पूर्ववर्ती समाज के अवशेषों का 'Electron spin resonence dating' पद्धति से मूल्यांकन करना आदि कई आधुनिक पद्धतियों ने इतिहास के अध्ययन में सहायता दी है। समुद्री पुराविज्ञान ने भी कई खोजों में सहायता दी है। इनसे हमें सहायता लेना ही होगी। केवल भावचक्षु से देखने से काम नहीं चलेगा। अन्यथा जैन इतिहास, जैन पुराण, जैन दर्शन, जैन जीने की पद्धति धीरे-धीरे एक दायरे में कैद हो जायेगी। वास्तव में संस्कृति के सृजक-विचारक रहे हैं किंतु उन्हें गतिमान रखने में तो आम मनुष्य ही रहा है। आज मनुष्य को बहुत सी कठिनाइयां रहती हैं। उसे संसार भी चलाना होता है और विचारकों के सोच को भी वहन करना होता है। इसके लिए उसे कोई मजबूर नहीं करता है वरन मनुष्य के मस्तिष्क की बनावट ही ऐसी है। उसका मस्तिष्क सदैव चुनौती से घिरा रहने का आदी है। आज विश्व इतिहास ने बहुत सी लुप्त हो गई सभ्यताओं के बारे में सूचनायें दी हैं। पर ऐसा क्या हुआ कि इन सभ्यताओं के केवल खंडहर ही रह गये हैं ? वास्तव में सौरमंडल और पृथ्वी दोनों ही घात-प्रतिघात करते हैं, अपनी बनावट बदल देते हैं, हवाओं के रुख बदल देते हैं। मनुष्य बार-बार इसे बनाता है, और ये बार-बार उलट-पुलट कर देते हैं। प्रकृति बार-बार चैलेंज करती है और मनुष्य इसे संवारता है, इस पर इतराता है और विनाश पर आवाक् सा देखता रह जाता है। फिर वही क्रम जारी हो जाता है। यह प्रक्रिया सृष्टि की प्रत्येक वस्तु या हिस्से पर लागू होती है। यह पुनः दोहराया जाता है। यह अमिट सत्य है। * निदेशक - ज्ञानोदय फाउण्डेशन,9/2, स्नेहलतागंज, इन्दौर-452005

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