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इस प्रकार आचार्यश्री के उपर्युक्त कथन से यह पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है कि आर्यिकाओं के ऊपर महाव्रतों का आरोपण किया जाता है।
आर्यिकाओं को महाव्रती मानना उनके किसी अभिमान पुष्टि के लिए नहीं समझना चाहिए, अपितु जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा एवं प्राचीनतम गुरु परम्परा के संरक्षण की दृष्टि से ही यहाँ विभिन्न प्रमाण विद्वानों के लिए प्रस्तुत किये जा रहे हैंजैसा कि पद्मपुराण में श्री रविषणाचार्य ने कहा है
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nokl ji ek; x ;; p" | kueøkee AA81AA अर्थात् महाव्रतों के द्वारा जिसका शरीर पवित्र हो चुका था तथा जो महासंवेग को प्राप्त थी, ऐसी सीता देव और असुरों के समागम से सहित उत्तम उद्यान में चली गई।।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आयिका महाव्रतों से पवित्र रहती हैं।
यही कारण है कि ऐलक के पास एक लंगोटी मात्र का परिग्रह होने पर भी एक साड़ी धारण करने वाली आर्यिकाएँ ऐलक से पूज्य होती हैं। जैसा कि सागारधर्मामृत में पं. आशाधर जी ने कहा है
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vfi ODreePNRokr-IVdsl; f; likgirAA37AA% अर्थ-आश्चर्य है कि लंगोटी मात्र में ममत्व भाव रखने से उत्कृष्ट श्रावक उपचरित भी महाव्रत के योग्य नहीं हैं। और आर्यिका साड़ी में भी ममत्व भाव न रखने से उपचरित महाव्रत के योग्य होती है। प्रवचनसार ग्रंथ में कहा है
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dựk: oovtWkk] I e.khv” rll ekpkj KAA टीका.......तत्प्रतिरूपं वस्त्रप्रावरणसहितं लिंग चिहन तासां स्त्रीणां जिनवरैः सर्वज्ञैः निर्दिष्टं कथितम् । ....युक्ता भवन्ति । काः? श्रामण्यार्यिकाः । पुनरपिं किं विशिष्टाः? तासां स्त्रीणां योग्यस्तद्योग्य आचारशास्त्रविहित समाचार आचरणं यासां तास्तत्समाचाराः इति।
अर्थात् जिनेन्द्रदेव ने उन आर्यिकाओं का चिह्न वस्त्र आच्छादन सहित कहा है.....आचारशास्त्र में उनके योग्य जो आचरण कहा गया है, उसको पालने वाली हों, ऐसी आर्यिका होनी चाहिए। इस गाथा में आचार्य कुंदकुंददेव ने आर्यिकाओं को समणीओ अर्थात् श्रमणी संज्ञा दी है। इससे यही सिद्ध होता है कि भगवान जिनेन्द्र की आज्ञास्वरूप उपचार महाव्रत धारण करने वाली श्रमणी आर्यिका ही है।
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I UKREki; fo.kî ) fePNkbîh gql" eq ks 00 A
[Ms fo .k dk; 0oa ikf.Nikal pYKLIP अर्थात् जो मनुष्य सूत्र के अर्थ और पद से रहित हैं, उसे मिथ्यादृष्टि समझना चाहिए, वस्त्र सहित को क्रीड़ामात्र में भी पाणिपात्र-करपात्र में भोजन नहीं करना चाहिए, यहाँ इसका अर्थ यह नहीं समझना कि आर्यिकाओं को भी पाणिपात्र में आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए अपितु गाथाओं का अर्थ ग्रंथ में पूर्वापर संबंध जोड़कर करना चाहिए अर्थात् सवस्त्र मुनि (श्वेताम्बर साधु की अपेक्षा कथन है) का यहाँ करपात्र में भोजन का निषेध है, आर्यिकाओं को करपात्र में आहार लेने का विधान है। अथवा सचेल-किसी गृहस्थ को पाणिपात्र में कभी भोजन नहीं लेना चाहिए।
अर्हत् वचन, 23 (3), 2011