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माध्यम श्रावक, और शेष के दो उत्कृष्ट श्रावक कहे जाते हैं। जिनागम में दूसरा लिंग उत्कृष्ट श्रावकों का बतलाया गया है। दशम प्रतिमा के धारक अनुमतिविरत श्रावक एक धोती, एक चादर तथा कमण्डलु रखते हैं। एकादश प्रतिमा के धारक उद्दिष्टविरत श्रावकों के ऐलक और क्षुल्लक की अपेक्षा दो भेद हैं। ऐलक कौपीन, पिच्छी और कमण्डलु रखते हैं तथा क्षुल्लक एक छोटी चादर भी रखते हैं, इस तरह जिनागम में दूसरा लिंग उत्कृष्ट श्रावकों का है। आर्यिकाएँ उपचार से सकल चारित्र की धारक कहलाती हैं। वे सोलह हाथ की एक सफेद धोती तथा पिच्छी रखती हैं। क्षुल्लिकाएँ ग्यारहवीं प्रतिमा की धारक कहलाती हैं। वे सोलह हाथ की धोती के सिवाय एक चादर भी रखती हैं। इस प्रकार जिनागम में तीसरा लिंग सकल चारित्र के द्वितीय भेद में स्थित आर्यिकाओं का होता है। इन तीन लिंगों के सिवाय जिनागम में चौथा लिंग नहीं है-उसमें तीन ही लिंग बतलाये हैं, हीनाधिक नहीं।
इस गाथा में श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने श्वेताम्बर साधुओं के उस लिंग को जिनागम से असम्मत बताया है जिसमें परिग्रहत्याग महाव्रत की प्रतिज्ञा लेकर भी वस्त्र धारण किया जाता है।"
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T0ofgu vg jug fookfl no t]k t xxAA187AA इसकी आचारवृत्ति टीका में श्री वसुनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य ने लिखा है
|-एषः । vTtk.kio; &आर्याणामपि च। I kekpkj-सामाचारः। tgfD[v -यथा-ख्यातो यथा प्रतिपादितः। itpa-पूर्वस्मिन्। I offe-सर्वस्मिन् । vgjlk-रात्रौ दिवसे च। fookil nok-विभाषयितव्यः प्रकटयितव्यो विभावयितव्यो वा। tgktxx-यथायोग्यं आत्मानुरूपो वृक्षमूला दिरहितः । सर्वस्मिन्नहोरात्रे एषोपि सामाचारो यथायोग्यमार्यिकाणां आर्यिकाभिर्वा प्रकटयितव्यो विभावयितव्यो वा यथाख्यातः पूर्वस्मिन्निति। [187 ।।
अर्थात् पूर्व में मुनियों की समाचार विधि का जैसा निर्देश किया है, आर्यिकाओं को भी सम्पूर्ण कालरूप दिन और रात्रि में यथायोग्य-अपने अनुरूप अर्थात् वृक्षमूल, आतापन आदि योगों से रहित वही सम्पूर्ण समाचार विधि आचरित करनी चाहिए। इस मूलाचार का हिन्दी अनुवाद पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने किया है, उसके भावार्थ में उन्होंने स्पष्ट किया है
इस गाथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्यिकाओं के लिए वे ही अट्ठाईस मूलगुण और वे ही प्रत्याख्यान, संस्तर ग्रहण आदि तथा वे ही औधिक पदविभागिक समाचार माने गये हैं जो कि यहाँ तक चार अध्यायों में मुनियों के लिए वर्णित हैं। मात्र 'यथायोग्य' पद से टीकाकार ने स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें वृक्षमूल, आतापन, अभ्रावकाश और प्रतिमायोग आदि उत्तर योगों के करने का अधिकार नहीं है और यही कारण है कि आर्यिकाओं के लिए पृथक् दीक्षाविधि या पृथक् विधि-विधान का ग्रन्थ नहीं है। अन्यत्र भी कहा है
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____vk; kbkrs lekpkj%larfo fdfIRogAA81AAT अर्थ-लज्जा, विनय, वैराग्य, सदाचार आदि से भूषित आर्यिकाओं के समूह में समाचार विधि संयतों के समान ही है, किन्तु आतापन योग आदि कुछ विधि आर्यिकाओं के नहीं है।
अर्हत् वचन, 23 (3), 2011