Book Title: Arhat Vachan 2011 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 23
________________ अर्थात् दो अवनति, बारह आवर्त, चार शिरोनति और तीन शुद्धि सहित कृतिकर्म का प्रयोग करें। तात्पर्य यह है कि एक बार के कायोत्सर्ग में यह विधि सम्पन्न की जाती है, इसी का नाम कृतिकर्म है। यह विधि देववंदना (सामायिक), प्रतिक्रमण और सभी क्रियाओं में भक्तिपाठ के प्रारंभ में की जाती है। इसके प्रयोग की सम्पूर्ण विधि मूलाचार में दृष्टव्य है। अर्थात् किस विधान से स्थित हों तो वंदना करे? सो ही बताते हैं जो आसन पर बैठे हुए हैं, शांतचित्त हैं एवं सन्मुख मुख किए हैं उनकी अनुज्ञा लेकर विद्वान् मुनि वंदना विधि का प्रयोग करें। 1600 || यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि जब किन्हीं विशेष श्रुतज्ञानी आचार्य महाराज की वंदना की जाती है तब लघु सिद्ध भक्ति, श्रुत भक्ति एवं आचार्य भक्ति पढ़कर कृतिकर्मपूर्वक वंदना की जाती है (सामान्य आचार्य की वंदना में सिद्धभक्ति एवं आचार्य भक्ति का पाठ किया जाता है)। यह कृतिकर्मपूर्वक वंदना (प्रतिदिन गुरु की तीन बार करने का विधान है) करने हेतु है, सामान्यतया नमोस्तु करने हेतु नहीं। परन्तु विहार के समय अथवा चलते-फिरते समय आचार्य महाराज की वंदना करने हेतु कृतिकर्म करना संभव नहीं हो सकता, तब सामान्यरूप से विनय प्रदर्शित करते हुए अपने स्थान से उठकर खड़े होकर नमोस्तु कहकर पंचांग नमस्कार किया जाता है। नीहार (मल-मूत्र त्याग) के समय तो वंदना की कोई बात ही नहीं आहार के समय जब नवधा भक्ति की जाती है तो उससे पूर्व पड़गाहन के अनंतर नमोस्तु कहकर ही मुनि महाराज को चौके के अंदर प्रवेश कराया जाता है, पुनः नवधाभक्ति के अंतर्गत नमोस्तु करके ही आहार प्रारंभ कराया जाता है, इन दोनों ही स्थितियों में कृतिकर्मपूर्वक वंदना नहीं की जाती है। पुनः जब कोई श्रावक आहार के मध्य में आहार देने हेतु चौके में आते हैं तो मन-वचन-काय की शुद्धि बोलकर नमोस्तु करके ही मुनिराज को आहार देते हैं, वहाँ भी कृतिकर्म नहीं किया जाता है। उपरोक्त स्थितियों में कृतिकर्म पूर्वक वंदना यद्यपि नहीं की जाती है, तथापि सामान्यतया नमोस्तु किया जाता है। आचार्य रविषेण कृत पद्मपुराण में देखें ____ini; keo ftukxkja Afo"Vk%J);"); kA VH; Fkkuuel; kfnfof/kuk lirukfpIKAA24AA19 उन आकाशगामी मुनियों (सप्तऋषियों) ने उत्तम श्रद्धा के साथ भूमि पर पैदल चलकर ही जिनमंदिर में प्रवेश किया तब महामुनि आचार्य श्री द्युति महाराज ने खड़े होकर नमस्कार करना आदि विधि से उनकी पूजा (वंदना) की। कहने का अभिप्राय यह है कि सप्तऋषि महाराज आसन पर विराजमान होते, उससे पूर्व उनको देखते ही आचार्य श्री द्युति महाराज उठकर खड़े हुए एवं उनको नमोस्तु (नमस्कार) किया। सामान्यतया भी देखा जाता है कि जब साधु कहीं मंदिर आदि में प्रवेश करते हैं तो उस समय साधु और श्रावकगण उठकर खड़े होते हैं और घुटने टेककर उन्हें पंचांग नमस्कार करते हैं। यदि प्रत्येक बार साधु शांतचित्त होकर बैठें और उसके बाद साधु या श्रावक उनको नमस्कार करें तो समयानुसार यह व्यवस्था घटित ही नहीं हो पाएगी। इसके अतिरिक्त यदि कोई आचार्य ज्वर आदि से पीड़ित हैं अथवा क्षपक-समाधिरत हैं या लेटे हैं, तब भी उसी अवस्था में उनको नमोस्तु किया जाता है। उनको बैठने का आग्रह करके पुनः उनके बैठने पर ही नमोस्तु करने की प्रक्रिया व्यवहारिकरूप से भी उचित नहीं है। अतः आगम में वर्णित नमस्कार विधि में अर्हत् वचन, 23 (3), 2011

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