Book Title: Aptavani Shreni 06
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 12
________________ उपोद्घात कुदरत क्या कहती है कि तुझे मैं जो-जो देती हूँ, वह तेरी ही बुद्धि के आशय के अनुसार है । फिर उसमें तू हाय-तौबा किसलिए करता है? जो मिला उसे सुख से भोग न ! बुद्धि के आशय में 'चाहे कैसी भी पत्नी होगी तो भी चलेगी, परंतु पत्नी के बिना नहीं चलेगा', ऐसा हो तो उसे चाहे कैसी भी पत्नी ही मिलेगी । फिर आज पराई स्त्री को देखकर खुद को अधूरा लगता है, परंतु संतोष तो खुद की घरवाली से ही होता है उसमें तू चाहे जैसी धमाचौकड़ी करेगा, फिर भी तेरा कुछ भी नहीं चलेगा । इसलिए समझ जा न ! समभाव से निकाल कर डाल न ! कलह करने से तो नई प्रतिष्ठा होती रहेगी और उससे संसार कभी भी विराम नहीं पाएगा। इस संसार की भटकन से हार, थक गया, अंत में जब एक ही चीज़ का निश्चय हो जाए कि अब कुछ छुटकारा हो जाए तो अच्छा, तब उसे ज्ञानीपुरुष अवश्य मिलेंगे ही, जिनकी कृपा से खुद के स्वरूप का भान होता है, खुद का आत्मसुख चखने को मिलता है । फिर तो उसकी दृष्टि ही बदल जाती है। फिर वह दृष्टि निजघर छोड़कर बाहर नहीं भटकती । परिणाम स्वरूप नई प्रतिष्ठा खड़ी नहीं होती । किसी को झिड़क दिया और फिर यदि मन में ऐसे भाव हों कि ऐसे किए बगैर तो सीधा नहीं होगा तो 'झिड़कना है' ऐसे कोडवर्ड से वाणी का चार्जिंग भी वैसा ही हो जाता है । उसके बजाय मन में ऐसा भाव हो कि झिड़कना गलत है, ऐसा नहीं होना चाहिए, तो 'झिड़कना है' का कोडवर्ड छोटा हो जाता है और वैसा ही चार्ज होता है । और 'मेरी वाणी कब सुधरेगी?' सतत वैसे भाव होते रहें तो उसका कोडवर्ड बदल जाता है। और ‘मेरी वाणी से इस जगत् के किसी भी जीव को किंचित्मात्र दुःख नहीं हो', ऐसी भावना से जो कोडवर्ड उत्पन्न होते हैं, उनमें तीर्थंकरों की देशना की वाणी का चार्जिंग होता है ! इस काल में वाणी के घाव से ही लोग दिन-रात पीड़ित रहते हैं। वहाँ पर लकड़ी के घाव नहीं होते, सामनेवाला वाक्बाण चलाए तब, 'वाणी पर है और पराधीन है', ज्ञानी का दिया हुआ वह ज्ञान हाज़िर होते ही, वहाँ 11

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