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लिए ही 'गुनहगार है' ऐसा लगता है! जिन्होंने निर्विशेष पद को प्राप्त किया है, उन्हें विशेषण से नवाज़ना अर्थात् सूर्य के प्रकाश को मोमबत्ती से अलंकृत करने जैसा है और फिर भी मन में अहम् को पोषण देते हैं कि मैंने ज्ञानी का कितना अच्छा वर्णन किया! इसे क्या कहना? क्या करना?
ज्ञानी की प्रत्येक बात मौलिक होती है। उनकी वाणी में कहीं भी शास्त्र की छाप नहीं है, अन्य उपदेशकों की छाया मात्र भी नहीं है और न ही है किसी अवतारी पुरुष की भाषा! उनके उदाहरण-सिमिलीज़ भी मौलिक हैं। अरे, उनकी सहज स्फूर्ति-मज़ाक में भी सचोट मार्मिकता और मौलिकता देखने को मिलती है। यहाँ पर तो प्रत्येक व्यक्ति को, खुद की ही भाषा में खुद अपनी ही उलझनें निकाल रहा है, ऐसा स्पष्ट अनुभव होता है!
अनुभवज्ञान तो ज्ञानी के हृदय में समाया हुआ है। वह ज्ञान प्राप्त करने के लिए तो जब तृषातुर ज्ञानी के हृदयकूप में खुद का समर्पणता रूपी घड़ा डूबो देगा, तभी वह परमतृप्ति को प्राप्त करेगा!
ज्ञानी की ज्ञानवाणी, उनके अनुभव में आनेवाले कथन, और खुद की भूलों के लिए सामने से हृदयग्राही होती हुई चाबियाँ कि जो किसी को मिल पाएँ ऐसी नहीं हैं। उनकी शिशुसहज निखालिसता और निर्दोषता स्वयं आगे आकर, उनका ज्ञानी के रूप में परिचय देती है!
ज्ञानी के एक-एक शब्द से अंतर का आंगन झूम उठता है!
जो कोई भी ज्ञानी के पास खुद की अंतरव्यथा लेकर गया, ज्ञानी उसकी अंतरव्यथा जैसी है वैसी, उसी क्षण पढ़कर, उसे ऐसी सहजता से शांत कर देते हैं कि प्रश्नकर्ता को पलभर में ही हो जाता है कि ओहोहो! बस इतना ही दृष्टिभेद था मेरा? ऐसे बाहर देखने के बदले दृष्टि को १८० डिग्री घुमा दिया होता तो कभी का हल आ गया होता! परंतु १८० डिग्री तो क्या, एक डिग्री भी खुद अपने आपसे कैसे घूम सकता है? वह तो सर्वदर्शी ज्ञानी का ही काम है।
आत्मविज्ञान जहाँ संपूर्ण रूप से प्रकट हुआ है, जहाँ हमारी अनंतकाल की 'आत्मखोज' को विराम मिल सकता है, वहाँ पर उस मौके